मैंने यूं ही कहानियाँ लिखनी शुरू की थी। जैसे बच्चे मिट्टी के घर बनाया करते हैं। ये बहुत पुरानी बात नहीं है। साल दो हज़ार आठ बीतने को था कि ब्लॉग के बारे में मालूम हुआ। पहली ही नज़र में लगा कि ये एक बेहतर डायरी है जिसे नेट के उपभोक्ताओं के साथ साझा किया जा सकता है। मुझे इसी माध्यम में संजय व्यास मिल गए। बचपन के मित्र हैं। घूम फिर कर हम दोनों आकाशवाणी में ही पिछले पंद्रह सालों से एक साथ थे। बस उसी दिन तय कर लिया कि इस माध्यम का उपयोग करके देखते हैं।
हर महीने कहानी लिखी। कहानियाँ पढ़ कर नए दोस्त बनते गए। उन्होने पसंद किया और कहा कि लिखते जाओ, इंतज़ार है। कहानियों पर बहुत सारी रेखांकित पंक्तियाँ भी लौट कर आई। कुछ कच्ची चीज़ें थी, कुछ गेप्स थे, कुछ का कथ्य ही गायब था। मैंने मित्रों की रोशनी में कहानियों को फिर से देखा। मैंने चार साल तक इंतज़ार किया। इंतज़ार करने की वजह थी कि मैं समकालीन साहित्यिक पत्रिकाओं से प्रेम न कर सका हूँ। इसलिए कि मैं लेखक नहीं हूँ। मुझे पढ़ने में कभी रुचि नहीं रही कि मैं आरामपसंद हूँ। मैं एक डे-ड्रीमर हूँ। जिसने काम नहीं किया बस ख्वाब देखे। खुली आँखों के ख्वाब। लोगों के चेहरों को पढ़ा। उनके दिल में छुपी हुई चीजों को अपने ख़यालों से बुना। इस तरह ये कहानियाँ आकार लेती रहीं।
दोस्तों को कहानियाँ पसंद आई तो उन्होने कहा किताब चाहिए। संजय भाई ने एक प्रकाशक का नाम बताया। उनसे बात की। मालूम हुआ कि सिर्फ उन्हीं लेखकों की कहानियाँ छप या बिक सकती हैं जो हंस, कथादेश, वागर्थ जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में छपे हों। जिनके नाम को पाठक जानते हों। मैंने कहा कि मेरे पास ये सब तो नहीं है। फिर भी आप छाप देंगे क्या? उन्होने कहा कि हाँ छाप सकते हैं, पैंतीस से उनचालीस हज़ार रुपयों में काम बनेगा। मेरे पास कुछ रुपये थे मगर वे इस तरह के कामों के लिए नहीं थे।
मैंने शैलेश भारतवासी से बात की, उन्होने कहा कि मैं आपकी कहानियाँ पढ़ना चाहूँगा। मैंने उसी वक़्त सोच लिया कि अब बात बन जाएगी। कहानी पढ़ने का मतलब था कि वे संभवतया इंकार न कर सकेंगे। आखिर ऐसा ही हुआ। उन्होने पूछा कितने लोग खरीद सकते हैं। मैंने कहा- एक आप जो छाप रहे हैं और दूसरा मैं जो लिख रहा हूँ। उन्होने दोबारा, तिबारा पूछा तो मैंने बताया कि शैलेश जी, ये आभासी संसार है। यहाँ लाइक करने, टिप्पणी करने और वास्तविक जीवन में चाहने के बीच का फासला बहुत बड़ा है। इस पर किसी तरह का यकीन नहीं किया जा सकता।
कहानी की किताब छापने का काम शुरू हो गया। मैंने संजय भाई का सबसे ज्यादा फायदा उठाया। साथ ही अनु, प्रतीक्षा, कविता, अमित, आभा, पृथ्वी, स्वाति, अंजलि जी और बहुत सारे दोस्तों को कष्ट दिये। किताब को प्री ऑर्डर पर रखा गया। शैलेश साहब ने कहा कि हस्ताक्षर करने दिल्ली आना होगा। किताब को प्रिन्टर से हम तक आने में अनुमान से ज्यादा वक़्त लग गया। दिल्ली शहर में घूमता हुआ अचरज भरी आँखों से देखता रहा। अच्छा कवि नहीं हूँ मगर लिखने में मजा आता है। इसलिए अपने कुछ अपडेट्स कविता की शक्ल में लिखे। कुछ दोस्तों से मिला। नौ और दस तारीख के बीच की रात को एक बजे दो सौ किताबों पर साइन किए। दो और किताबों पर अगले दिन साइन किए।
आप सबको क्या कहूँ कि दो सौ से ज्यादा प्री ऑर्डर के बारे में जानकार मुझे कैसा लगा होगा। लव यू दोस्तों। किताब आप तक आती होगी, फिलहाल ये कुछ पंक्तियाँ पढ़िये। दिल्ली महानगर की अलग अलग जगहों पर बैठे हुये चार टुकड़ों में लिखी है।
हमारी दिल्ली
कैसा शहर है
इसकी आँखों पे धुंध का चश्मा
इसके बदन पर धूप की तपिश ही नहीं है
बस ओढ़ी हुई है एक पानी की चादर।
लोग उड़े जाते हैं
मखमली फ़ाहों से रुकते ठहरते।
हैरत में हूँ कि इतने बड़े शहर में
इस कदर भीड़ में भी तनहाई का बसेरा।
कोई पीठ थपथपा के कहता है मुझको
आवाज़ों के मेले में भी होता है, चुप्पी का कोना
सरसब्ज ज़मीं में भी छूट जाती है, सूखी मिट्टी।
मैं खोये हुये आदमी की तरह देखता हूँ
इंतज़ार करते हुए गुमशुदा रास्तों को।
इस शहर के पाँवों में बसों की पाजेब
शिराएँ रेल की पटरियों जैसी
और किनारे पर जिगर की तरह बसी हुई कच्ची बस्तियाँ
इसके दिल की सेहत को बाई पास सर्जरी सी मेट्रो की सांसें।
इसकी जेबों में भरी बड़े माल्स की चमचम
कॉफी के प्यालों की खनक के नीचे
ओबामा की बातों के शक्कर के दाने
सड़क के किनारे सिगरेट पीते लड़के
तंग कपड़ों में नुमाया, मिजाज़ इस शहर का।
ये कैसा शहर है
कि इसके माथे में छत्तीसगढ़ के जंगल की ख़ुशबू
मुगलिया ज़माने के दिल फरेब ड्रामे।
श्री राम सेंटर के आगे खड़ा सोचता हूँ
जो तुम होते यहाँ पर तो कितना अच्छा होता।
हर तरफ
सूखे पत्ते पड़े हैं सड़क के किनारे
ख्वाब दौड़े जाते हैं हसरत उठाए
शहर की हक़ीक़त के चाबुक अजब हैं
बरसते हैं ख्वाबों की पीठों पर मुसलसल
मगर वे कभी भी, किसी को दिखते नहीं हैं।
इस शहर में हर तरफ आईने हैं
जिनमें हुक्मरान आदमी को सुखी देखता है।
उन्हीं आईनों में
हुक्मरानों को मसखरा देख कर
रसोई, चूल्हा, रोटियाँ भूल कर, लतीफे सुनाता, अजब ये शहर है।
ये कैसा शहर है कि
इसमें अभी तक हैं ज़िंदा, बँटवारे की यादें
अभी भी बिछड़ी गलियों की महक है बाकी
अभी भी यहाँ लोग प्रेम करना नहीं भूले।
रात में जगमगाता शहर जागता है
मैं वसंतकुंज से लौटता हुआ सोचता हूँ
दिल की जेबों में भर कर क्या क्या ले जाऊँ?
ज़िया सराय के अबूझे रास्तों पर
नई उम्र की नई फसल के ताज़ा चेहरे
गलियाँ मगर फिर वही पुरानी
तवारीख़ के पेच और खम उलझी।
आईआईटी की दूजी तरफ
पश्चिमी ढब के बाज़ार सजे हैं
कहवाघरों के खूबसूरत लंबे सिलसिलों में
खुशबाश मौसम, बेफिक्र नगमें, आँखों से बातों की लंबी परेडें
कोई न कोई कुछ तो चाहता है मगर वो कहता कुछ भी नहीं है।
सराय रोहिल्ला जाते हुये देखता हूँ कि
सुबह और शाम, जाम में अकड़ा हुआ सा
न जाने किस ज़िद पे अड़ा ये शहर है। ये अद्भुत शहर है, ये दिल्ली शहर है।
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