मनुष्य की बुद्धि में एक दौड़ बैठी हुई है। वह हरदम इसी में बना रहता है। दौड़ने का विषय और लोभ कुछ भी हो सकता है। इस दुनिया की श्रेष्ठ वस्तुओं को प्राप्त करने की इस दौड़ में दौड़ते हुये को देख कर हर कोई मुसकुराता है। उसकी मुस्कुराहट इसलिए है कि वह दौड़ रहे आदमी के अज्ञान पर एक अफसोस भरी निगाह डाल लेता है। अगर कोई धन के लिए दौड़ रहा है तो दूसरा आदमी सोचता है कि इसके साथ धन कहाँ तक चलेगा। अगर कोई यश की कामना लिए दौड़ रहा है तो विद्वान आदमी सोचता है कि यश एक अस्थायी चीज़ है। एक दिन इसका साथ छोड़ जाएगी। जो आदमी ज्ञान के लिए लगा है उसे देखते हुये कोई आलसी सोचता है कि इसने आराम तो किया ही नहीं ऐसे ही पढ़ते हुये खप जाएगा। इस तरह के अनिश्चित परिणाम वाली एक दौड़ हम सबके भीतर जारी रहती है। हम सब उसके सही या गलत होने के बारे में कोई खास यकीन नहीं ला सकते है। मगर मुझे जब कोई इस तरह दौड़ते हुये रोक लेता है तब थोड़ी झल्लाहट के बाद मैं सुकून पाने लगता हूँ।
परसों रेलवे क्रॉसिंग के पास रोक लिया गया। मुझसे पहले भी बहुत सारे लोग खड़े थे। मैं पुराने शहरों की संकरी गलियों में रास्ता खोजते जाने के अभ्यस्त जीव की तरह लंबी कतार के बीच से रास्ता बनाता हुआ रेलवे क्रॉसिंग के पास तक पहुँच गया। आगे आने में भी एक सुख होता है, आगे आने की ही दौड़ होती है। जहां मैं पहुंचा वहाँ सिर्फ इंतज़ार ही हाथ लगा। मैंने अपने आस पास खड़े लोगों को देखना शुरू किया। सोचा कि अगर कोई दूसरी दुनिया होती है और वहाँ जाने पर कोई हिसाब पूछा जाता है तो कह दूंगा साहब रेलवे क्रॉसिंग पर खड़ा हुआ लोगों को देख कर आया हूँ। मेरे आगे दो सायकिल सवार खड़े थे। एक सायकिल के कॅरियर के साथ सायकिल की नंबर प्लेट लगी थी। उस पर नंबर ऐसे लिखे हुये थे जैसे मशीन से चलने वाले वाहनों पर होते हैं। इसे देख आर चौंकना इसलिए हुआ कि जिन वाहनों पर सही नंबर प्लेट लिखी होनी चाहिए वहाँ लिखा होता है “मुझसे दोस्ती करोगी” जैसा कोई दिल फरेब इन्विटेशन या अपनी जाति, धर्म, पहचान या फिर उस महकमे का नाम जिसके मुलाज़िम हैं। नंबर प्लेट्स अपराध रोकने में कारगर भूमिका निभाती है लेकिन हम इसकी कद्र नहीं करते हैं। हम इसे प्रदर्शन की चीज़ बना देते हैं।
मेरे बचपन से ही रेल की पटरी साथ चल रही है। घर के पास से गुजरती है। रेल की आवाज़ ऐसे आती है जैसे कि पास वाले कमरे से होकर गयी है। स्कूल भी रेलवे का ही था। वहाँ तक जाने के लिए रेल की पटरी पर इंजन बन कर चलते हुये कई साल बिता दिये। रेल की पटरियों में फिशप्लेट या ऐसा ही कुछ कहा जाने वाला एक लोहे का टुकड़ा लगा होता है। यह रेल की पटरी को उसके आधार से कस कर रखने में काम आता है। मेरे मुहल्ले के कुछ बच्चे इस तरह के लोहे के टुकड़ों को निकाल कर कबाड़ी को बेच दिया करते थे। मैं उनकी इस हरकत का गवाह होने से भी डर जाता था कि अगर पापा ने देख लिया तो वे क्या हाल बना देंगे। वे इतिहास के शिक्षक थे और कठोर अनुशासन में यकीन रखते थे। मैं रेलवे क्रॉसिंग के पास खड़ा हुआ सोचने लगा कि उस दौर के माता पिताओं जितना सख्त कानून होना चाहिए ताकि हमारा भय राष्ट्र की उन्नति का कारक बन सके। तुलसी ने किस बात से प्रेरित होकर कहा होगा कि “भय बिनु प्रीत न होत गुसाईं” नहीं मालूम लेकिन अक्सर मुझे ये सच जान पड़ता है कि स्वछंद व्यक्ति अधिक कलाधर्मी तो हो सकता है मगर जिस तरह की समाज व्यवस्था में हम जी रहे हैं उसके लिए हानिकारक होगा।
देश और मिट्टी से प्रेम करने के लिए ऐसे छोटे छोटे कानून कायदों का सम्मान करना ही सबसे ज़रूरी बात है। लेकिन हम देश प्रेम को कोई बड़ी चीज़ समझ कर उस काम के आ पड़ने का इंतज़ार करते हैं। हम रेल की पटरी में लगी फिशप्लेट और गाड़ी के पीछे लिखे नंबर को मामूली जानते हैं और इसका संबंध राष्ट्र प्रेम से नहीं जोड़ पाते हैं। एक प्राचीन यूनानी कथा के अनुसार एंटीयस नामक एक महान योद्धा था। कहा जाता है कि वह समुद्र के देवता पोसेईडन और धरती की देवी गीया का पुत्र था। एंटीयस अपनी माँ से बहुत प्रेम करता था। उसने उसे जन्म दिया था, दूध पिलाया था और पाला पोसा था। दुनिया में ऐसा कोई वीर न था जो एंटियस को परास्त कर सके। उसकी शक्ति इस बात में थी कि जब भी वह मुसीबत में होता अपनी मिट्टी को छू लेता और इससे उसे नयी शक्ति मिल जाती। इस अजेय योद्धा के इस राज़ को हरक्युलिस ने जान लिया था। उसने एंटियस को ज़मीन से अलग कर हवा में उठाए रखा और हवा में ही गला दबा कर मार दिया। इस दंतकथा का अर्थ बहुत गंभीर है कि जिस वक़्त तक हम अपनी मिट्टी की क़द्र करते हैं वह हमें जीवन जीने की नयी ऊर्जा देती रहती है। इसी मिट्टी से प्रेम करना ही सच्चा देश प्रेम है। रेल की पटरी पर लगी फिशप्लेट्स और वाहनों की नंबर प्लेट तो मिट्टी से कहीं ज्यादा कीमती चीज़ें हैं। इन चीजों को हम भारतवासियों ने अपने श्रम से बनाया है। हमें इनकी क़द्र करनी चाहिए।
मैं सोचता रहा कि ऐसा क्यों है कि ये सायकिल वाला नंबर प्लेट लगाने से प्रेम करता है। यानि इसके पास मशीन से चलने वाला वाहन नहीं है तो भी इसने सायकिल के पीछे एक नंबर प्लेट टांग रखी है जबकि जहां ज़रूरी हैं वहाँ जो लिखा होना चाहिए उसके सिवा सब कुछ लिखा होता है। मुझे वे अध्यापक भी याद आए जिनके नाम लेने से भी सब बच्चे डर जाते रहे हैं। आज वैसा कानून क्यों नहीं है। इस नस्ल को जो तहज़ीब दी है वह किसने दी है? क्या ये हम ही लोग नहीं हैं जो अपनी आने वाली पीढ़ी को मौज का पाठ पढ़ा कर जा रहे हैं जबकि हम सब को सलीके और क़द्र से जीने का पाठ पढ़ाया गया था। हम किस दौड़ के चक्कर में लगे हैं और क्या भूलते जा रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि एक दिन पड़ोसी हम पर हँसे कि देखो भारत देश के नागरिक किस रास्ते पर दौड़ते हुये कहाँ पहुँच गए हैं। हम अगर इसी हाल में जीते रहे तो हमें इस मुल्क में रहने का कभी हक़ नहीं होना चाहिए। फ़ैज़ ठीक कहते हैं कि “मेरे दिल मेरे मुसाफिर हुआ फिर से हुक्म सादिर, के वतन बदर हों हम तुम दें गली गली सदाएं”
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राजस्थान खोजख़बर : 13 दिसंबर 2012