दोपहर होने तक फरेब से भरे इश्क़ की दास्तां के पहले तीस पन्ने पढे थे। एक गहरी टिंग की आवाज़ आई। फोन की रिंग ऐसे ही बजती है। किसी निर्विकार, निर्लिप्त और संवेदनहीन हरकारे की आवाज़ की तरह। रिंग दोबारा बजने के बीच भी एक लंबा अंतराल लेती है। मैंने रज़ाई से दाहिना हाथ ज़रा सा बाहर निकाल कर बिस्तर को टटोला कि फोन कहाँ रखा है। दोस्त का फोन था। फोन पर हुई लंबी बातचीत में भरपूर गोता लगा आने के बावजूद कहानी जहां छूट गयी थी मैं वहीं पर अटका हुआ था।
चार बजे एक अखबार के दफ्तर में बैठा था।
अखबार वाले मुझे एक हज़ार शब्द लिखने के एवज़ में ढाई सौ रुपये देते हैं। मुझे ये न्यूनतम मजदूरी से भी कई गुना नीचे का मामला लगता है। लेकिन इस अखबार के लिए मैं इन चंद रुपयों के लिए नहीं लिखता हूँ। ये दिनेश जोशी का कहा हुआ है, इसलिए लिखता हूँ। "अहा ज़िंदगी" वालों ने एक कवर स्टोरी लिखने के दो हज़ार रुपये दिये थे। मैंने उस चेक को केश करा लिया मगर उस मित्र को खूब सुनाया, जिसने ये स्टोरी मेरी रज़ा के खिलाफ़ मुझसे ही सिर्फ दो दिन में लिखवाई थी। इतनी बड़ी पत्रिका को चार हज़ार शब्दों का मोल आठ आने प्रति शब्द तय करते समय डूब मरना चाहिए था। संभव है कि कुछ बड़े लोग और कुछ बड़े संस्थान कोई मौका दिये जाने जैसे भ्रम में जीते रहते हैं।
मैं दफ्तर में कहानी नहीं पढ़ सकता था। हमें लोक संगीत की रिकॉर्डिंग का शेड्यूल बनाना था। एक पूरे पखवाड़े तक सुबह दस से शाम छह बजे तक स्टूडिओ में बीजी हो जाने के दिन दस्तक दे रहे थे। कुछ काम किया कुछ प्लान किया। सूरज बुझने को ही था कि घर चला आया। पेज तीस से आगे की कहानी शुरू होने को ही थी कि आभा ने आवाज़ दी। रमेश का एक्सीडेंट हो गया है। भाई साहब उसे लेकर आ रहे हैं। जल्दी अस्पताल पहुँचो। मेरा फोन काम नहीं कर रहा था, अब अचानक से दिमाग ने भी धोखा दिया। मैं हड़बड़ी में अस्पताल की ओर चल रहा था या शायद दौड़ रहा था। सीटी स्केन हो रहा था। किसी भाई ने कहा कि उसको होश है। मैंने सांस ली।
रमेश सर्जिकल वार्ड भर्ती था। रात के दस बजे मैं भाई को लेकर घर आया। उनको अपने बेटे की चिंता थी। वे खाना नहीं खा सकते थे लेकिन तब तक डॉ सिंघल कह चुके थे कि मेरी आशा से ये ठीक है मगर फिर भी अगले चार घंटे तक पूरा ध्यान रखिए। उन्होने पूछा- आप किशोर हैं न? मैंने कहा- हाँ। वे कुछ और पूछते उससे पहले मैंने बताया कि मेरा भतीजा है। घर आकर हम दोनों भाइयों ने दो दो चपाती खाई। अस्पताल घर से तीन सौ मीटर दूर है। सोचा कि रात भर के लिए क्या चाहिए होगा? कुछ खास नहीं चन्दन पांडे का कहानी संग्रह इश्क़फ़रेब।
मौसम जितना सुंदर था, रमेश उतनी ही करवटें बदल रहा था। उसको लगी ड्रिप में कई सारी दवाइयाँ थी। रात के दो बजे रमेश ने सही जवाब देने शुरू किए। उसने अपनी पुख्ता पहचान बताई। मुझे अब बहुत आराम हुआ। मैंने पास के पलंग पर बैठे हुये किताब खोल ली।
प्रेम का विघटन या क्षरण नहीं हो सकता है। इसलिए उसे उसके हाल में ही स्वीकार करना पड़ता है। चन्दन की कहानी रिवाल्वर का मुख्य पात्र गौतम है। वह अपनी कहानी कह रहा है। उसकी बातों में निर्धारित आवृति वाला फ्लेश बैक है। यह क़िस्सागो का बूमरेंग है। जो लौट लौट कर आता है और फिर आगे की बात पीछे की ताकीद करती हुई बढ़ जाती है। नीलू एक वृहद बिम्ब की तरह खुलती है। किसी असीमित आकाश की तरह। धूसर रंग की नीली। प्रथम पुरुष कथा का कोरा पात्र नहीं है वरन इससे बढ़कर वह एक ज़िंदा आदमी का वुजूद है। इतना ज़िंदा कि मैं उस आदमी के सच से बड़े सच को याद नहीं रख पाता हूँ। इस कीमियागीरी में दो ही गहरे रंग हैं। एक है नीला और दूसरा नीले हो जाने की चाह का रंग।
किताब देखते ही मैं सचमुच डर गया था कि सौ पन्नों की कहानी के लिए मेरे अब्बू मदद करें तो भी मैं पढ़ न सकूँगा। इससे पहले ऐसा गीत चतुर्वेदी कर चुके थे। उन्हीं यादों के साथ बैठे हुये पाया कि अस्पताल के दूसरे माले पर बने सर्जिकल वार्ड में भर्ती कुछ लोगों के पास नोकिया कंपनी के मोबाइल फोन थे। उनमें एक खास तरह का ऐप्प था। वे टूटे फूटे लोग शायद कई दिनों से इस वार्ड में थे और किसी खेल की तरह खेल रहे थे। उस ऐप्प से रह रह कर कोई छेड़खानी करता और आवाज़ आती- समय हुआ है तीन बज कर नौ मिनट... समय हुआ है तीन बज कर सोलह मिनट। सबके फोन में समय भी अलग अलग थे। एक ही टाइम ज़ोन में टाइम के बहाने किसी ने मुझे इतना कभी नहीं पकाया था।
रमेश करवट बदलता रहा। उसके सर में हल्की सूजन थी। बदन-दर्द, दवाओं के असर से दबा हुआ था। एक बूढ़े मियांजी अपने बेटे के पलंग पर बैठे हुये बूंद बूंद सिंचाई जैसे उपक्रम को देख रहे थे। एक लुहारिन की सोने की नथ चमक रही थी। इसी लुहारिन को सबसे ज्यादा समय सुनने का शौक भी था। इसकी बगल वाले से एक आगे वाले बिस्तर वाला भी इसका ही सिरी (पार्टनर) था। वह ज़रूरी अंतराल देकर इसकी नक़ल उतार रहा था। रात मुसलसल बीतती जा रही थी। मैं अपने चश्मे को उतार कर आँखें पोंछता हुआ एक नज़र भाई पर डाल लेता। भाई गणेश छाप ज़र्दे के साथ चूना मसलते हुये सियासत, एजुकेशन, इंसानी स्वार्थ जैसे रेंडम विषयों पर अपनी कोई बात कह कर चुप हो जाते। मैं फिर इश्क़फ़रेब के चक्कर में पड़ जाता।
रात का आँचल घना फैला हुआ था। किसी वजह से जगह बदल रहा कबूतर खिड़की के पास देर तक ऊट पटांग फड़फड़ाहट बिखेर कर चुप हुआ ही था कि अचानक से एक कुतिया के पंजों के नाखूनों के बजने की आवाज़ थी। वह कॉरीडोर से होती हुई आई। उसने लोहे की सभी चारपाइयों के नीचे सघन तलाशी ली। इसी वक़्त कहानी का गौतम प्रेम जैसी किसी शे के चोट खाये बदन पर उम्मीदों का मरहम रखते हुये प्रेम किए जा रहा था। तीन और प्रेमी थे। नहीं, वे प्रेमी नहीं थे। उन सभी के व्यक्तित्व बौने थे। वे गौतम जैसे बरगद की छाया में उगे हुये थे। उनसे नफरत ही नहीं हुई। वे कोई कोढ़ न थे, वे ऐपेंडिक्स थे। जिनको रिमूव करने की कोशिशें नाकाम हुई जाती थी। इसी अप्रत्याशा में गौतम उनको बार बार रक़ीब कह कर बुलाता था।
सुबह चार बजे
अस्पताल के बाहर हल्की ठंडी हवा थी। मुख्य दरवाज़े के पास चाय वाला था। वह रात की पाली में चाय बेचता होगा इसलिए आधी नींद के अभ्यास से भरा हुआ था। मैंने कहा दो चाय बना दो। आवाज़ सुन कर उसने मुझे पहचान लिया। बोला- कौन भर्ती है? भतीजा। क्या हुआ? एक्सीडेंट। कैसे? कार वाले टक्कर मारी। ज्यादा खराबी हुई? मैंने कहा नहीं सब कुछ बच गया है। वह चाय में डालने के लिए अदरक को किसने लगा। मैं मुस्कुराने लगा कि इसी जगह इसके पापा चाय और आमलेट सर्व करते थे। इसी जगह कितने ही दोस्तों ने हर रात नियम से पव्वे खाली किए थे। इसी जगह शराब से भरने के बाद दोस्त लोगों के दिल अस्पताल आते हुये मरीजों के दुख से भी भर जाया करते थे। शराबियों का खून डॉक्टर लोग लेते नहीं थे। शराबी कहते थे, एक बार लेकर देखो, मरीज का हुलिया बदल जाएगा। लेकिन दुख कायम रहते और आदमी को इन्हें बरदाश्त करने के सिवा कोई रास्ता न था।
मैं रात भर से जाग रहा हूँ। कल सुबह के बाद से बहुत बीजी हूँ। अब सो जाना चाहता हूँ। मेरी स्मृति में गौतम के पास बहुत सारी पर्याप्त वजहें हैं। जिसकी ज़िंदगी की टहनी से प्रेम का एक परिंदा उड़ता है और चार वापस आ बैठते हैं। ज़िंदगी सदा हरे रहने वाले दुख के बूटे के पास खिले हुये परजीवी नीले प्रेम की परछाई है।
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Image - A model participates in a 2012 International Bodypainting Festival Asia at Duryu park on September 1, 2012 in Daegu, South Korea. The festival is the largest event in the field of body painting and spreads the art form to thousands of interested visitors each year.
Photograph by: Chung Sung-Jun Courtsey theprovince.com