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रेगिस्तान के एक कोने के पुस्तकालय में प्रेमचंद

हम जाने कैसे इतने उदासीन हो गए हैं कि महापुरुषों को याद करने के लिए आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में उपस्थित होना ही नहीं चाहते हैं। इसका एक फ़ौरी कारण ये हो सकता है कि हम उस वक़्त इससे ज्यादा ज़रूरी काम करने में लगे हों। काम की ज़रूरत और महत्व क्या है इसके बारे में शायद सोचते भी न हों। कभी ये हिसाब न लगाते हों कि आज के दिन के सिवा भी कोई दुनिया थी, कोई दुनिया है और आगे भी होगी। उस दुनिया पर किन लोगों के विचारों, लेखन और कार्यों का असर रहा है। जिस समाज में हम जी रहे हैं वह समाज किस रास्ते से यहाँ तक आया है। बुधवार को प्रेमचंद की जयंती थी। इस अवसर पर दुनिया भर के साहित्य प्रेमियों ने उनको धरती के हर कोने में याद किया। शायद सब जगह उनको उपन्यास सम्राट और सर्वहारा का लेखक और सामाजिक जटिल ताने बाने के कुशल शब्द चितेरा कहा गया होगा। उनके बारे में कहते हुये हर वक्ता ने अपनी बात को इस तरह समाप्त किया होगा कि प्रेमचंद के बारे में कहने के लिए उम्र कम है, इस सभा में आए सभी विद्वजन उनके लेखन पर प्रकाश डालते जाएँ तो भी ये एक पूरी उम्र गुज़र सकती है।

रेगिस्तान के इस कस्बे में भी इसी अवसर पर जिला पुस्तकालय में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। विध्यार्थियों के लिए निबंध लेखन और भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। शहर के प्रबुद्ध लोग और अनेक विध्यार्थी इस कार्यक्रम में उपस्थित थे। प्रेमचंद अपने लेखन में जो भारत का अक्स हमें सौंप कर गए थे, उसमे ज़रा सा भी बदलाव नहीं आया है। हम अचानक से याद करते हैं कि आज़ादी से पंद्रह साल पहले से अब तक लगभग अस्सी साल गुज़र चुके हैं भारत की शक्ल में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर आदर्श किशोर के वक्तव्य में सपनों का देश अनुपस्थित है। वे इसे वैसा ही मानते हैं जैसा कि प्रेमचंद अपने लेखन में हमें सौंप कर गए थे। उनके सब पात्र आज भी उसी हाल में जी रहे हैं। उनकी मूलभूत समस्याएँ वैसी ही हैं। जाति, शोषण, सामंत और अधिनायकवादी तत्वों का बोलबाला वैसा ही है।

लेखन के सरोकार ही लेखक की सबसे बड़ी पूंजी और चरित्र हुआ करता है। एक रूढ़िवादी, अशिक्षित और चेतना के संकट से घिरे हुये राष्ट्र में सर्वहारा के जीवन को कथाओं में बुन कर उनकी तकलीफ़ों को जन जन की सहज स्वीकार्य वाणी में बदल देना प्रेमचंद की थाती है। उनके बारे में बोलते समय विध्यालय के बच्चे ऐसा महसूस करते हैं जैसे वे किसी अपने देखे भाले हुये परिचित के बारे में बात कर रहे हों। ऐसा किस तरह संभव हुआ कि अस्सी से अभी अधिक बरस पहले का लेखन हमारे लिए आज का सबसे अधिक सामयिक दस्तावेज़ हो गया है। वक़्त बदला, समाज और राष्ट्रों ने अंगड़ाइयाँ ली मगर एक लेखक ने जिस समाज के तंत्रिका तंत्र को लिखा वह आज भी कायम है।

कैसे कृतियाँ समय के क्षय से आगे निकल जाया करती है। ये कितना अद्भुत लिखना है कि कई दशक बीत जाते हैं मगर एक एक बात उतनी ही खरी और सामयिक बनी रहती है। रेगिस्तान के आखिरी छोर से लेकर राजधानियों और वहाँ से हर कोने तक इस महान लेखक की असाधारण प्रतिभा को याद किया जाता है। प्रेमचंद के लेखन में जन की पीड़ा के स्वर हैं ही किन्तु जो सबसे बड़ी बात है वह है उनका राजनैतिक दृष्टिकोण। इस बात को अक्सर जान बूझ कर गोल ही रखा जाता है। महात्मा गांधी के प्रभाव की बात की जाती है लेकिन उन्होने जो खुद लिखा है उसे भुला दिये जाने की कोशिशें की जाती हैं। इसलिए कि रूढ़िवादी और दक्षिणपंथी ताक़तें सदा ही कुप्रथाओं और बेड़ियों में जकड़े हुये समाज में बेहतरी से पनप सकती है। प्रेमचंद समाज की रगों में दौड़ रही असमानता और पूंजी के चाहने वालों की करतूतों को उजागर करते रहे हैं। उनके पात्र, उनका जीवन और आचरण अपने आप में मनुष्य के बेहतर जीवन की कामना के उद्घोष का मेनिफेस्टो है।

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