लालकुर्ती बाज़ार का नाम लो तो जाने कितने शहर एक साथ याद आते हैं. पेशावर से लेकर मेरठ तक. ये लाल कमीज यानि अंग्रेज फौज़ की पोशाक बेचने वाले बाज़ार हर उस छावनी के आसपास हैं जिनको अंग्रेजी उपनिवेश काल में स्थापित किया गया. उस ज़माने के ये छोटे से बाज़ार अपनी तंग सर्पिल गलियों में भीड़ से आबाद रहते हैं. एक पुराना मौसम है जिसकी गंध यहाँ की हर छोटी बड़ी दुकान में समाई रहती है. ऐसा लगता है कि हाथ ठेले वालों से लेकर खुले दरवाज़ों के पीछे लगे हुए ऐ सी वाली दुकानों तक में कोई समय का साया ठहरा है. बारहों महीनों के हर मौसम में इतनी ही भीड़ इतने ही खरीदार और ऐसी ही रवानी. पाँव को आँख उग आती है कि वह हर क़दम पर ठिठक जाता है. सामने कोई अड़ा हुआ दिखाई देता है. भीड़ किस बात की है. भीड़ का ऐसा आलम क्यों है. लोग इतना सामान कहाँ रखेंगे अगर यहाँ से सबकुछ खरीद लेंगे तो नया नया सामान आने में कितना वक़्त लगेगा. इन बाज़ारों और मेरठ की गलियों में पुरातन और ऐतिहासिक यादों के साये में घूमता हुआ सोचता हूँ कि वक़्त अपने साथ क्या ले गया? कुछ ज़िन्दा लोगों की सांसें, कुछ उम्मीदें टूटी हुई. अब भी मगर पौराणिक कथाओं के ग्रंथों से कई ...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]