किसी भी लोक की कहावत को अगर हम किसी ख्यात व्यक्ति के नाम से उद्धृत कर दें तो उस पर कोई संदेह नहीं किया जाता कि ये उन्होंने कहा है या सदियों की मानव सभ्यता के अनुभव से जन्मी कोई बात है. ऐसे कहा जाता है कि गुलाब के फूल बांटने वाले के हाथों में गुलाब की खुशबू बची रह जाती है. अचानक सुना कि लोक कथाओं की खुशबू से भरी हुई अंगुलियाँ विदा हो गयीं. अचानक ही याद आया कि एक मित्र ने दस साल बाद भी अभी तक एक किताब नहीं लौटाई है. किताब का शीर्षक है अलेखूं हिटलर. ये किताब उसी लोक गंध से भरी है जिसके कारण बिज्जी यानि विजयदान देथा को जाना जाता है. बिज्जी चले गए हैं या वे कहीं नहीं गए अपने शब्दों के माध्यम से रेगिस्तान की हवा में घुल मिल गए हैं. अदीठ किन्तु हर वक़्त साथ. उस जादुई प्रेत की तरह जो नवविवाहिता पर मोहित होकर एक दुनियादार बन जाने को उकस जाता है. दुनिया में न होते हुए भी साकार दुनिया में उपस्थित. वे कहीं नहीं जा सकते हैं. वे हमेशा हमारे बीच रहेंगे. वे कुछ दोस्त थे. ऐसे दोस्त जिनको लगता था कि राजस्थान की इस बहुमूल्य लोक निधि को संरक्षित करने का काम किया जाना चाहिए. आज़ादी के बाद के पहले तीन दशकों में देश सेवा का जज़्बा इसी तरह के काम करने का हौसला देता था. उनमें से दो दोस्त अपने काम के कारण खूब जाने गए. एक दोस्त ने लोक कथाओं का संग्रहण किया, दूजे ने लोक संगीत को दुनिया के कोने कोने में पहुँचाने का काम किया. वे दूसरे दोस्त कोमल कोठारी थे. वे राजस्थान की घुमंतू, ख़ानाबदोश लोक गायकों की गायिकी को सबके सामने लाने के काम में जुटे रहे. आज भी लंगा, मांगनियार, मिरासी, ढाढ़ी और ढोली कलाकारों के मुख पर कोमल कोठारी का नाम मौजूद रहता है. लोक संगीत और उसके व्यापक फलक को कोई एक इन्सान किसी दिशा में नहीं बढ़ा सकता है. ये लोक जीवन की सामूहिक रचना है. इसमें सारा लोक किसी न किसी रूप में समाया हुआ है. सुर और शब्द कण कण में रचे-बसे-घुले हुए हैं. लेकिन जिस तरह के प्रयास कोमल कोठारी ने किये वे इन जिप्सी गायकों में पीढ़ी दर पीढ़ी याद किये जायेंगे. वैश्विक स्तर पर जो सम्मान राजस्थान की सीमान्त गायिकी को मिला उसका श्रेय भी कोमल कोठारी को ही दिया जायेगा.
बोरुन्दा गाँव में इन दो मित्रों ने जो अतुल्य धरोहर खड़ी की उसका नाम रूपायन संस्थान है. इसी संस्थान ने राजस्थान के लोक की सांस्कृतिक पूँजी को संरक्षित करने का काम शुरू किया था. बातपोश कला को लिखित रूप में सामने लाने और संग्रहित, संरक्षित करने का जो बीड़ा उठाया वह राजस्थानी भाषा की अद्वितीय धरोहर बन कर हमारे सामने आया. ये लोक कथाएं हमारे जीवन में गली कूचों में बिखरी पड़ी थीं. इनका वाचन हर जमावड़े में किया जाता रहा है. कहीं पांच लोग मिल बैठे तो सदियों पुरानी लोक द्वारा रची और संवारी गयी कहानियां हवा में बिखरने लगी. ये बेहद छोटे चुटकलों से लेकर लोक गाथा के रूप में उम्रदराज़ होती गयी थी. समय की गति के साथ आते हुए बदलावों में यकीनन इन कथाओं का लोप हो जाता. बातपोश नहीं रहते तो बातें भी ख़त्म हो जाती. सुनने वाले के पास मन बचा रहता किन्तु सुनाने वाला कहीं खो जाता. इन लोक कथाओं का संग्रहण और पुनर्सृजन कोई आसान और हर किसी के बस का काम न था. इसके लिए बेहिसाब जज्बे की और दीवानगी की ज़रूरत थी. ये सब कुछ विजयदान देथा के पास ही था. मुझे इस बात पर पूरा यकीन है कि जो सामर्थ्य और लेखन के तत्वों की समझ बिज्जी में थी वह अतुलनीय है. हालाँकि रानी लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत का नाम ज़रूर मेरे मन में बिना किसी भूल के आता है. रेत के कण कण की गाथा को अक्षरों का बाना पहनाने में उनका भी योगदान अविस्मर्णीय है. मिठास से भरी हुई इन लोक कथाओं में नीति, ज्ञान, कष्ट, सुख, प्रतीक्षा और दुरूह जीवन की सच्ची झांकियां हैं. लोक मिलकर जिसकी रचना करता है वह किसी एक का गुणगान न होकर पूरे समाज का रूपक हुआ करता है. इसी रचना प्रक्रिया में सशक्त लोगों की चापलूसी के सूत्र भी बिखरे रहते हैं. सामंतों के गुणगान में सच्चाई अक्सर परदे के पीछे चली जाती है लेकिन आज़ादी के बाद शुरू हुए इस काम और प्रगतिशील विचारधारा की समझ के कारण ही लोक कथाओं के लिपिबद्ध होते समय राजस्थान की कथाओं का सच्चा दस्तावेजीकरण हो सका है.
उनके राजस्थानी भाषा को दिए योगदान को ये रहती दुनिया कभी न भूल पायेगी. बातां री फुलवाड़ी से फुलवाड़ी और उसके आगे अपने खुद के लेखक हो जाने तक के सफ़र में बिज्जी की वही किताब मुझे फिर से याद आ रही है. हालाँकि मैंने बातां री फुलवाड़ी के संग्रहकर्ता से लेखक होते जाने के पूरे काम को पढ़ा है. मैंने ये भी इसलिए स्वीकार कर लिया कि बिज्जी सचमुच ऐसा काम न करते तो ये कथाएं इतना सम्मान न पा सकती थीं. विजयदान देथा एक कुशल संग्रहकर्ता, राजस्थान के लोक जीवन के तत्वों के गहरे ज्ञाता और अपनी जुबान को खूब प्यार करने वाले थे. अलेखूं हिटलर, दुविधा और अदीठ जैसी जिन किताबों को मैंने पढ़ा है, उनमें संग्रहित कहानियों के तत्व और ढांचा राजस्थान की लोक कथाओं का है. मैंने चरणदास चोर यानि खांतीलो चोर को पढ़ा और देखा भी है. वह भी मुझे लोक कथा का नाट्य रूपांतरण ही लगता है. अगर ये लोक कथाएं न होकर ओरिजनल काम है तो ये कुछ ऐसा है जैसे गेंदे के फूल की खेती हो और उसमें से गुलाब की खुशबू आ रही हो. इस अनूठी खेती के लिए भी विजयदान देथा कभी विस्मृत न किये जायेंगे. लोक कथाओं पर बुनी गयी उनकी कहानियों को मैंने इसलिए बार बार पढ़ा कि उन कहानियों में मेरे आस पास की दुनिया झांकती है. ये कहानियां मुझे याद दिलाती हैं कि इस सदी के गुणसूत्रों में हिटलर प्रवृतियाँ रच बस गयी हैं. हम उसका गुणगान किये जाने से ज़रा भी शर्मिंदा नहीं होते. हम हिटलर प्रवृति के लोगों के लिए निर्विरोध समर्थन जुटाने के काम में लगे हुए हैं. बिज्जी राजस्थान के साहित्य ही नहीं वरन दुनिया भर में लोक रचनाओं के संरक्षण का काम करने वालों में सिरमौर गिने जायेंगे.
बोरुन्दा गाँव में इन दो मित्रों ने जो अतुल्य धरोहर खड़ी की उसका नाम रूपायन संस्थान है. इसी संस्थान ने राजस्थान के लोक की सांस्कृतिक पूँजी को संरक्षित करने का काम शुरू किया था. बातपोश कला को लिखित रूप में सामने लाने और संग्रहित, संरक्षित करने का जो बीड़ा उठाया वह राजस्थानी भाषा की अद्वितीय धरोहर बन कर हमारे सामने आया. ये लोक कथाएं हमारे जीवन में गली कूचों में बिखरी पड़ी थीं. इनका वाचन हर जमावड़े में किया जाता रहा है. कहीं पांच लोग मिल बैठे तो सदियों पुरानी लोक द्वारा रची और संवारी गयी कहानियां हवा में बिखरने लगी. ये बेहद छोटे चुटकलों से लेकर लोक गाथा के रूप में उम्रदराज़ होती गयी थी. समय की गति के साथ आते हुए बदलावों में यकीनन इन कथाओं का लोप हो जाता. बातपोश नहीं रहते तो बातें भी ख़त्म हो जाती. सुनने वाले के पास मन बचा रहता किन्तु सुनाने वाला कहीं खो जाता. इन लोक कथाओं का संग्रहण और पुनर्सृजन कोई आसान और हर किसी के बस का काम न था. इसके लिए बेहिसाब जज्बे की और दीवानगी की ज़रूरत थी. ये सब कुछ विजयदान देथा के पास ही था. मुझे इस बात पर पूरा यकीन है कि जो सामर्थ्य और लेखन के तत्वों की समझ बिज्जी में थी वह अतुलनीय है. हालाँकि रानी लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत का नाम ज़रूर मेरे मन में बिना किसी भूल के आता है. रेत के कण कण की गाथा को अक्षरों का बाना पहनाने में उनका भी योगदान अविस्मर्णीय है. मिठास से भरी हुई इन लोक कथाओं में नीति, ज्ञान, कष्ट, सुख, प्रतीक्षा और दुरूह जीवन की सच्ची झांकियां हैं. लोक मिलकर जिसकी रचना करता है वह किसी एक का गुणगान न होकर पूरे समाज का रूपक हुआ करता है. इसी रचना प्रक्रिया में सशक्त लोगों की चापलूसी के सूत्र भी बिखरे रहते हैं. सामंतों के गुणगान में सच्चाई अक्सर परदे के पीछे चली जाती है लेकिन आज़ादी के बाद शुरू हुए इस काम और प्रगतिशील विचारधारा की समझ के कारण ही लोक कथाओं के लिपिबद्ध होते समय राजस्थान की कथाओं का सच्चा दस्तावेजीकरण हो सका है.
उनके राजस्थानी भाषा को दिए योगदान को ये रहती दुनिया कभी न भूल पायेगी. बातां री फुलवाड़ी से फुलवाड़ी और उसके आगे अपने खुद के लेखक हो जाने तक के सफ़र में बिज्जी की वही किताब मुझे फिर से याद आ रही है. हालाँकि मैंने बातां री फुलवाड़ी के संग्रहकर्ता से लेखक होते जाने के पूरे काम को पढ़ा है. मैंने ये भी इसलिए स्वीकार कर लिया कि बिज्जी सचमुच ऐसा काम न करते तो ये कथाएं इतना सम्मान न पा सकती थीं. विजयदान देथा एक कुशल संग्रहकर्ता, राजस्थान के लोक जीवन के तत्वों के गहरे ज्ञाता और अपनी जुबान को खूब प्यार करने वाले थे. अलेखूं हिटलर, दुविधा और अदीठ जैसी जिन किताबों को मैंने पढ़ा है, उनमें संग्रहित कहानियों के तत्व और ढांचा राजस्थान की लोक कथाओं का है. मैंने चरणदास चोर यानि खांतीलो चोर को पढ़ा और देखा भी है. वह भी मुझे लोक कथा का नाट्य रूपांतरण ही लगता है. अगर ये लोक कथाएं न होकर ओरिजनल काम है तो ये कुछ ऐसा है जैसे गेंदे के फूल की खेती हो और उसमें से गुलाब की खुशबू आ रही हो. इस अनूठी खेती के लिए भी विजयदान देथा कभी विस्मृत न किये जायेंगे. लोक कथाओं पर बुनी गयी उनकी कहानियों को मैंने इसलिए बार बार पढ़ा कि उन कहानियों में मेरे आस पास की दुनिया झांकती है. ये कहानियां मुझे याद दिलाती हैं कि इस सदी के गुणसूत्रों में हिटलर प्रवृतियाँ रच बस गयी हैं. हम उसका गुणगान किये जाने से ज़रा भी शर्मिंदा नहीं होते. हम हिटलर प्रवृति के लोगों के लिए निर्विरोध समर्थन जुटाने के काम में लगे हुए हैं. बिज्जी राजस्थान के साहित्य ही नहीं वरन दुनिया भर में लोक रचनाओं के संरक्षण का काम करने वालों में सिरमौर गिने जायेंगे.