लालकुर्ती बाज़ार का नाम लो तो जाने कितने शहर एक साथ याद आते हैं. पेशावर से लेकर मेरठ तक. ये लाल कमीज यानि अंग्रेज फौज़ की पोशाक बेचने वाले बाज़ार हर उस छावनी के आसपास हैं जिनको अंग्रेजी उपनिवेश काल में स्थापित किया गया. उस ज़माने के ये छोटे से बाज़ार अपनी तंग सर्पिल गलियों में भीड़ से आबाद रहते हैं. एक पुराना मौसम है जिसकी गंध यहाँ की हर छोटी बड़ी दुकान में समाई रहती है. ऐसा लगता है कि हाथ ठेले वालों से लेकर खुले दरवाज़ों के पीछे लगे हुए ऐ सी वाली दुकानों तक में कोई समय का साया ठहरा है. बारहों महीनों के हर मौसम में इतनी ही भीड़ इतने ही खरीदार और ऐसी ही रवानी. पाँव को आँख उग आती है कि वह हर क़दम पर ठिठक जाता है. सामने कोई अड़ा हुआ दिखाई देता है. भीड़ किस बात की है. भीड़ का ऐसा आलम क्यों है. लोग इतना सामान कहाँ रखेंगे अगर यहाँ से सबकुछ खरीद लेंगे तो नया नया सामान आने में कितना वक़्त लगेगा. इन बाज़ारों और मेरठ की गलियों में पुरातन और ऐतिहासिक यादों के साये में घूमता हुआ सोचता हूँ कि वक़्त अपने साथ क्या ले गया? कुछ ज़िन्दा लोगों की सांसें, कुछ उम्मीदें टूटी हुई. अब भी मगर पौराणिक कथाओं के ग्रंथों से कई चेहरे अचानक घनी भीड़ से सामने आ जाते हैं. शिवभक्त रावण के श्वसुर या युधिष्ठर के वास्तुकार मयासुर की नगरी के लोग सोमवार के दिन छुट्टी पर बैठे हुए. हर शहर का अपना अवकाश का दिन हुआ करता है. मुझे सोमवार के नाम पर हिन्दुओं के आराध्य शिव याद आते हैं और देखता हूँ कि दुकानों की कतारों में खासे शटर गिरे हुए हैं. जो शटर अप हैं वे मल्टी नेशन स्टोर्स की चैन मार्केटिंग वाले हैं. यहाँ धूप जब जाड़े की सुबह से आँखें मिलाती है तो बड़ा सुकून आता है. रेगिस्तान की तरह सूखे मौसम की जगह ओस और धुंध से भीगी हुई सुबह खिली हुई थी. एक धुंधली चादर के नीचे शहर की सड़कों पर लोग अपनी मंज़िलों की ओर दौड़े जा रहे थे. आहिस्ता क़दमों से चलते हुए देखता हूँ कि इस शहर में सड़कों के बीच पार्किंग की अनूठी रवायत है. सड़क के ठीक बीच में आप अपना वाहन खड़ा कर सकते हैं बाकी दोनों तरफ दुकानों के आगे खाली जगह कुछ ऐसे जैसे कोई रूठा हुआ महबूब ज़िद अपर अड़ कर कोई लकीर खींच गया हो कि तुम उस तरफ, हम इस तरफ. इस शहर को देखते हुए याद आता है कि इस दुनिया में सब कुछ मिटता नहीं है. कुछ बचा रह जाता है, तंग गलियों में नई नस्लों में.
दिल्ली की ओर लौटती हुई रेलगाड़ियाँ अपने पायदानों तक यात्रियों से भरी होती हैं. दिल्ली की ओर कूच के अनेक किस्सों में कोई हसरत, कोई लोभ समाया ही था. आजाद राजधानी की ओर जाने वाले असंख्य यात्रियों को रोज़गार खींचता होगा. वे हर रंग रूप और हाल में दीखते हैं. मैं एक डीएमयू में दरवाज़े के थोडा आगे जगह तलाश कर खड़ा होता हूँ. दुआ का कारोबारी अपनी आवाज़ लगाता हुआ, मेरी ओर बढ़ता हुआ आता है. कहता है अल्लाह तुम्हारी हर जायज मुराद पूरी करे. मैं अपनी मुरादों के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि जायज मुरादें तो पूरी ही हैं. असल रोना जिन मुरादों का हम ढोते हैं वे सब नाजायज ही हुआ करती हैं. अचानक मुझे दुआ के इस कारोबारी पर शक हुआ. क्या ज़रूरी है कि इसकी दी हुई दुआ काम करे. इसकी खुद की जायज दुआ कि काश दो आँखें होती, वह भी अधूरी पड़ी हुई है. जिसको मेरी जायज दुआ पूरी करनी है उसी ने इसके साथ नाजायज किया हुआ है. फिर लगा कि शायद दुआदार देख सकते हों और सिर्फ अपने गुज़ारे के वास्ते इस तरह का कारोबार अपना लिया हो. रेलगाड़ी के दोनों तरफ गन्ने की नन्हीं पौध धरती को हरा रंग दे रही थी और अचानक मुझे मेरी एक नाजायज मुराद की याद आई, काश कहीं भाग जाओ. जाने कैसे ख्यालों में मैं दिल्ली की सड़कों तक चला आया. मेरे पांवों के नाखून बढ़ गए थे शायद या सर्द मौसम की आमद से जूते सिकुड़ गए थे. पंजों में बेहिसाब दर्द समां गया था. ऐसे में चुप अकेले चलते जाना और दिल्ली के पुराने रेलवे स्टेशन से आगे कपडा बाज़ार की तंग गली में चर्च मिशन मार्ग पर इकलौते दवा बेचने वाले से कहना कि कोई ऐसा साल्ट दे दो जिससे पेट की आँतों में हो रहा दर्द कम हो जाये और फिर सोचना कि काश साल्ट कुछ और बातों के लिए भी बने होते. मेरे आस पास सायकिल रिक्शे वाले हैं, उनकी शक्ल ओ सूरत किसी खानाबदोश और मज़लूम जैसी ही दिखती हुई. ये ज़िन्दगी किसके लिए बोझा ढो रही है? कुछ समझ नहीं आता. सोचता हूँ कि पूछूं लेकिन कोई नहीं समझता किसी को, न साथ रह कर न दूर रह कर. आदमी ज़ुबानदराज़ होकर भी बेज़ुबान हैं.
सब कुछ वैसा ही है बस जो ज़िन्दा हैं वे भरे हुए हैं ख़ुशी और रंज के असर से. कहाँ बदलता है कुछ कि उम्र के आख़िरी छोर तक कई लोग बचा कर ले जाते हैं हिचकियाँ दुखों वाली. किसी तनहा सिरे पर बैठ कर सोचते हैं कि क्या अच्छा होता गर इनको बाँट लिया होता इसे दुनिया में किसी से. आंसुओं का एक मौसम होता है. बड़े कच्चे रंग वाला मौसम. इस तरह बिखरता है कि न रंग आता न यकीन होता है कि सब पहले सा ही है. मेरे पास ही बैठा हुआ एक नौजवान जोड़ा किसी उलझन में एक दूजे को देखता है और फिर नज़र नीचे कर लेता है. लड़की शाम के वक़्त जागने का बहाना लेकर अपनी हिचकियों को पोंछते हुए सामने वाले को कहती है कि सब ठीक है. मुझे लगता है कि ऐसा कहते हुए वह भीतर से कितना बिखर रही होगी. मैं उन दोनों से कहना चाहता हूँ कि तुमने कभी याद किया है कि दुख आये और चले गए हैं. शायद वे इस बारे में जानते होंगे मगर ये सलाह अक्सर खुद के लिए काम नहीं आती. सफ़र अपने आप में ज़िन्दगी का हासिल है. हम दुःख और सुखों के अचरज को देखते हैं सांस लेते हुए.
दिल्ली की ओर लौटती हुई रेलगाड़ियाँ अपने पायदानों तक यात्रियों से भरी होती हैं. दिल्ली की ओर कूच के अनेक किस्सों में कोई हसरत, कोई लोभ समाया ही था. आजाद राजधानी की ओर जाने वाले असंख्य यात्रियों को रोज़गार खींचता होगा. वे हर रंग रूप और हाल में दीखते हैं. मैं एक डीएमयू में दरवाज़े के थोडा आगे जगह तलाश कर खड़ा होता हूँ. दुआ का कारोबारी अपनी आवाज़ लगाता हुआ, मेरी ओर बढ़ता हुआ आता है. कहता है अल्लाह तुम्हारी हर जायज मुराद पूरी करे. मैं अपनी मुरादों के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि जायज मुरादें तो पूरी ही हैं. असल रोना जिन मुरादों का हम ढोते हैं वे सब नाजायज ही हुआ करती हैं. अचानक मुझे दुआ के इस कारोबारी पर शक हुआ. क्या ज़रूरी है कि इसकी दी हुई दुआ काम करे. इसकी खुद की जायज दुआ कि काश दो आँखें होती, वह भी अधूरी पड़ी हुई है. जिसको मेरी जायज दुआ पूरी करनी है उसी ने इसके साथ नाजायज किया हुआ है. फिर लगा कि शायद दुआदार देख सकते हों और सिर्फ अपने गुज़ारे के वास्ते इस तरह का कारोबार अपना लिया हो. रेलगाड़ी के दोनों तरफ गन्ने की नन्हीं पौध धरती को हरा रंग दे रही थी और अचानक मुझे मेरी एक नाजायज मुराद की याद आई, काश कहीं भाग जाओ. जाने कैसे ख्यालों में मैं दिल्ली की सड़कों तक चला आया. मेरे पांवों के नाखून बढ़ गए थे शायद या सर्द मौसम की आमद से जूते सिकुड़ गए थे. पंजों में बेहिसाब दर्द समां गया था. ऐसे में चुप अकेले चलते जाना और दिल्ली के पुराने रेलवे स्टेशन से आगे कपडा बाज़ार की तंग गली में चर्च मिशन मार्ग पर इकलौते दवा बेचने वाले से कहना कि कोई ऐसा साल्ट दे दो जिससे पेट की आँतों में हो रहा दर्द कम हो जाये और फिर सोचना कि काश साल्ट कुछ और बातों के लिए भी बने होते. मेरे आस पास सायकिल रिक्शे वाले हैं, उनकी शक्ल ओ सूरत किसी खानाबदोश और मज़लूम जैसी ही दिखती हुई. ये ज़िन्दगी किसके लिए बोझा ढो रही है? कुछ समझ नहीं आता. सोचता हूँ कि पूछूं लेकिन कोई नहीं समझता किसी को, न साथ रह कर न दूर रह कर. आदमी ज़ुबानदराज़ होकर भी बेज़ुबान हैं.
सब कुछ वैसा ही है बस जो ज़िन्दा हैं वे भरे हुए हैं ख़ुशी और रंज के असर से. कहाँ बदलता है कुछ कि उम्र के आख़िरी छोर तक कई लोग बचा कर ले जाते हैं हिचकियाँ दुखों वाली. किसी तनहा सिरे पर बैठ कर सोचते हैं कि क्या अच्छा होता गर इनको बाँट लिया होता इसे दुनिया में किसी से. आंसुओं का एक मौसम होता है. बड़े कच्चे रंग वाला मौसम. इस तरह बिखरता है कि न रंग आता न यकीन होता है कि सब पहले सा ही है. मेरे पास ही बैठा हुआ एक नौजवान जोड़ा किसी उलझन में एक दूजे को देखता है और फिर नज़र नीचे कर लेता है. लड़की शाम के वक़्त जागने का बहाना लेकर अपनी हिचकियों को पोंछते हुए सामने वाले को कहती है कि सब ठीक है. मुझे लगता है कि ऐसा कहते हुए वह भीतर से कितना बिखर रही होगी. मैं उन दोनों से कहना चाहता हूँ कि तुमने कभी याद किया है कि दुख आये और चले गए हैं. शायद वे इस बारे में जानते होंगे मगर ये सलाह अक्सर खुद के लिए काम नहीं आती. सफ़र अपने आप में ज़िन्दगी का हासिल है. हम दुःख और सुखों के अचरज को देखते हैं सांस लेते हुए.