ज़िन्दगी रात थी, रात काली रही

लोकतन्त्र और चुनावों के बारे में एक प्रसिद्द उक्ति है कि चुनावों से अगर कुछ बदला जा सकता तो इनको कभी का अवैधानिक क़रार दे दिया जाता. इसे याद करते हुए हमें लगता है कि दुनिया भर के लोकतान्त्रिक देश निश्चित अविधि के बाद नयी सरकारें चुनते हैं किन्तु वे जिस उद्धेश्य और सोच से प्रेरित होकर वोट करते हैं वह कभी पूरा नहीं हो पाता है. हम ख़ुशी से भरे होते हैं कि इस बार ज़रूर कुछ बदलने वाला है लेकिन सिर्फ चहरे और नाम बदल जाते हैं. व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आता. आम आदमी के जीवन को आसान करने वाले काम की जगह नया शासन उसी ढर्रे पर चलता रहता है. इस सदी का सबसे बड़ा रोग भ्रष्टाचार है. ये रोग हर बार नए या फिर से चुनकर आने वालों का प्रिय काम बन कर रह जाता है. वे ही लोग जो कल तक इस बीमारी के कारण हुए राष्ट्र के असीमित नुकसान का हल्ला मचाते हुए नए अच्छे शासन के लिए बदलाव की मांग करते हैं इसी में रम जाते हैं. आप अगर कुछ नेताओं के जवानी के दिनों की माली हालत को याद कर सकें तो एक बार ज़रूर करके देखिये. ऐसा करते हुए आप असीम आश्चर्य से भर जायेंगे. ये अचरज इसलिए होगा कि ऐसे अनेक नेता पक्ष और विपक्ष में बराबरी से मौजूद हैं. वे बारी बारी से सत्ता की कुर्सी पर विराजते हैं और अपनी संपत्ति बढाते जाते हैं. यही हाल अपराधों का है. अपराधमुक्त राजनीति की बात करने वाले दल, हर चुनाव में आरोपित नेताओं को टिकट बाँटते हैं. हम इस दोमुंहे आचरण को पढ़ते, देखते, जानते और समझते हैं मगर चुप ही रहते हैं. हम दूसरे दल को ज्यादा भ्रष्ट बताकर अपने कम दागियों के बचाव में उतर आते हैं. इस तरह चुनावों के बरस बीतते जाते हैं. व्यवस्था में कोई फर्क नहीं आता. हम कोसते रहने के काम में लगे रहते हैं.

हाल ही में पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए हैं. इनमें किसी तरह का आदर्श न राजनैतिक दलों ने प्रस्तुत किया है, न मतदातों ने ऐसा करने के बदले किसी को मतदान के माध्यम से दण्डित किया है. आर्थिक और सामाजिक अपराधों के आरोपों से घिरे हुए नेता हमारे बीच वोट मांग रहे थे. अगर कोई नेता जेल में बंद है या किसी तरह से जमानत पर रिहा है तो वह या उसका कोई परिजन उसी दल का उम्मीदवार है. इतने गिरे हुए हाल में भी मतदाता किसी न किसी वजह से उत्साहित रहता है. वह सुबह सवेरे वोट डालने के लिए कतारों में खड़ा हुआ अपनी बारी का इंतजार करता है. एक दिसंबर की सुबह नौ बजे के आस पास मैं आकाशवाणी के दफ्तर से निकला और अपने पोलिंग बूथ पर पहुंचा. इस पर कुल पंद्रह सौ वोटर चिन्हित हैं. इनमें से कोई सत्तर फीसद वोटर दिहाड़ी मजदूर हैं. वे रोज़ कुआं खोदते और रोज़ पानी पीते हैं. उनके जीवन में अवकाश के दिन सिर्फ तब आते हैं जब उनका शरीर काम करने से मना करने लगता है. इस बूथ पर सुबह दस बजे तक पच्चीस फीसद वोट पड़ चुके थे. मेरे पास भारत निर्वाचन आयोग का मिडियाकर्मियों के लिए जारी प्रवेश पत्र था. मैंने पीठासीन अधिकारी से पूछा कि कैसा चल रहा है. उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- शांतिपूर्ण और तेज. मतदाता शांत थे मगर जल्दी में भी थे. उनके लिए सरकार चुनने को मतदान करना ज़रूरी था लेकिन उससे भी ज्यादा ज़रूरी कोई काम उनको तेज़ी से आगे धकेल रहा था. उस बूथ के बाद दोपहर के दो बजे तक कई संवेदनशील और सामान्य मतदान केन्द्रों पर मैंने लोकतंत्र के उत्सव का आनंद लिया. मैंने कई लोगों से बात की. आज का मतदाता बहुत समझदार हो गया है. वह अपने पत्ते नहीं खोलता और अक्सर ये भी कह देता है कि आप कहो किसे वोट देना है? मैं उसी को दे दूंगा. इस बार की गयी बातचीत में यही सामने आया कि मतदाता हर तरफ से घिरा हुआ महसूस करता है. उसके पास चुनने के लिए जो विकल्प हैं वे उसे सीधे उत्साहित नहीं करते वरन वह इस उम्मीद में वोट कर रहा है कि शायद कुछ बदले. उसके अपने अनुभव निराशाजनक हैं. लेकिन उसकी आशाएं अभी अक्षुण हैं.

इस बार नोटा यानि उपरोक्त में से कोई नहीं का विकल्प उपयोग में लाया गया. इससे क्या फर्क हुआ इसके परिणाम अभी आने शेष हैं. मतदान के प्रति मतदाता की रूचि शायद इस बात से जगी हो कि वह मतपेटी में सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने मत डाल सकेगा. वास्तव में नोटा एक प्रकार के असहयोग का प्रतीक है कि जो सरकार बनती हैं उसमें हमारी सहमति नहीं है. काश नोटा एक कारगर हथियार की तरह होता कि सबसे अधिक मत मिल जाने पर सभी चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों को हारा हुआ मान लिया जाता और नए उम्मीदवारों के साथ नया चुनाव होता. ये बहुत कारगर हो सकता है मगर इस प्रक्रिया को अपनाये जाने पर भी वैसे ही खतरे उपस्थित हैं जैसे वर्तमान में हाल में हैं. मुझे एक परिवार के मुखिया मिले वे दो कार लेकर पूरी रात भर का सफ़र करके वोट डालने आये थे. उत्साह में कहते हैं- साहब अपने परिवार के बारह लोगों को वोट दिलाने के लिए साढ़े पांच सौ किलोमीटर दूर आया हूँ. मैं सोचता हूँ कि इस परिवार के लोग भले ही राजनितिक लक्ष्य के लिए या अपनी जात पांत के चक्कर में वोट डालने आये हैं मगर ये एक सच्ची प्रतिबद्धता है. इस बार के चुनाव हर बार की तरह देश के लिए बेहतर सरकार को चुनेंगे इसमें कोई संदेह नहीं है. लेकिन व्यवस्था का भ्रष्टाचार सिर्फ वहीँ तक सिमित नहीं है. रेगिस्तान के इस सदूर स्थित भूगोल पर बसे हुए लोगों ने राजनितिक रेलियों में भाड़ोत्री बनकर जाने को अपना लिया है. क्या हमारी समझ और पेट के बीच यही एक भूख का ही सिद्धांत शेष है. और क्या कभी भूख से बाहर आकर नए राष्ट्र के निर्माण के लिए हम खुद को तैयार कर पाएंगे. साइमन सेनेक का कहना है कि नेतृत्व अगले चुनाव के लिए वरन अगली पीढ़ी के लिए है. हमें भी याद रखना चाहिए कि हम जिनको चुन रहे हैं उनका असर सिर्फ अगले पांच साल पर ही नहीं होगा, ये असर हमारी नयी पीढ़ी पर दिखाई देगा. हम एक दिन ज़रूर कामयाब होंगे मगर तब तक के लिए बशीर बद्र साहब का एक शेर है- चाँद तारे सभी हमसफ़र थे मगर/ ज़िन्दगी रात थी, रात काली रही.

[ये लेख विगत शुक्रवार को दैनिक राजस्थान खोजखबर में प्रकाशित हो चुका है. ]