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Showing posts from April, 2017

सबसे छोटी दोपहर

जिस वक्त उदघोषकों की कांफ्रेंस में कागज़ के प्यालों में ठंडी हो चुकी चाय थी। ठीक उसी वक़्त सबसे पिछली कतार में बैठे एक शायर को महबूब के गरम-गरम बुलावे आ रहे थे। उसकी आवाज़ से लगता था कि इंतज़ार में एक पींपा बीयर पी जा चुकी होगी। ये सच ही था कि उससे होटल का नाम ही भूल गया था। होटल के उस कमरे तक जाने को जब हम निकले तब जयपुर पर अप्रेल की कड़ी धूप थी। ऐसी ही धूप उस बरस भी थी। जिस बरस अम्बर टॉवर से एमआई रोड की ओर एक लड़की को थके कदम जाते हुए देखा था। उस होटल के रास्ते मे एक ऑटो वाले ने पूछा- सर वुड यू... हमने उसकी बात को नज़र अंदाज़ कर दिया। होटल के कमरे की एक कुर्सी में फंसा महबूब उठ सकने के हाल में न था। इसलिए उसने आंखे और हाथ उठाकर आह्वान किया। आओ प्यारे इस ज़िन्दगी को मार गिराएं। मैं अचानक चौंक उठा कि मेरी ज्यादातर महबूबाओं के नाम आर अक्षर से शुरू होते हैं और ये भी कैसी बात ठहरी कि उस कमरे में जो दो लोग थे। उनके नाम राजू याग्निक और राजेश चड्ढा थे। उस कमरे में बीयर की इतनी बोतलें थी कि हर हरकत पर वे आपस मे टकराने लगतीं। टकराने पर ऐसी आवाज़ आती। जैसी शायर हरमन के कहे किसी शेर में, दिल मे आती थी। र...

ख़ामोशी से भरा घर

हवा ने कितनी ही थपकियाँ दी होंगी. आज सुबह मैं उस दरवाज़े के सामने खड़ा था. दरवाज़ा चुप था. ऐसे चुप जैसे कोई किसी अपने के लौट आने पर हतप्रभ चुप खड़ा होता है.वह पूछना भी नहीं चाहता कि अब किसलिए आये हो? जब गए थे तब सोचा न था कि जाने के बाद क्या होगा. घर, रिश्ते, चीज़ें सब एकांत में छीजने लगते हैं. मैं झुकर थैले के आगे वाली जेब में चाबी खोजता हूँ.  ख़ामोशी से भरा घर हमें पुकारता होगा? ना. मैं अपने आप से ना कहता हूँ. इसलिए कि घर तब तक है जब तक कोई उसके लिए है. जब वहां कोई नहीं है तब घर एक निर्जीव चीज़ है. अपने पक्ष में इस तरह की तकरीर करते हुए चाबी निकाल लेता हूँ. घर के दरवाज़े पर लगी कुण्डी का अन्दर वाला एक स्क्रू गिर गया है. असल में कई बार उसे कसा मगर पेच बचा नहीं था. अक्सर रिश्तों के, प्रेम के, नफरत के, ईर्ष्या के और लगभग हर अनुभूति के पेच मर जाते हैं.  उन पेचों को हम बार-बार कसना चाहते हैं मगर चूड़ी होती नहीं है. इसी तरह मैंने हत्थी के पेच को कई बार कसा मगर कुछ रोज़ बाद फिर से ऊपर की तरफ से ढीला हो जाता. की-होल में चाबी आसानी से घूमती नहीं है. कुण्डी को पकड़ के बाहर की ओर...

दो झपकी के ख़याल में

शाम जाने कैसी बीते? हो सकता है सात बजे तक आने वाले धुंधलके के बाद गरमी छंट जाये. हलकी ठंडी हवा चलने लगे. गरम दिन में यही एक ख़याल ऐसा था, जिसके भरोसे मैंने तत्काल में रिजर्वेशन लिया और स्लिपर कोच में चढ़ गया. पिछले दस एक रोज़ से वायरल बुखार था. आधी रात या भरी दोपहर में बुखार अचानक से आता. बदन तपने लगता और फिर नीम बेहोशी छाने लगती. दवा लो तो कुछ देर बाद पसीना होता और भीग कर मैं जाग जाता था. ऐसे में लगता नहीं था कि जयपुर की यात्रा कर सकूंगा. इसलिए पहले टिकट न ली. क्या कभी हम इस तरह कुछ स्थगित कर सकते हैं?  शिथिल मन और थकन से भरा बदन कहता है- जाने दो. जो जिस तरह बीतता है बीते. निश्चेष्ट पड़े रहो. जैसे भोर के बाद बड़े वाला उल्लू पड़ा होता है. उसे कुछ दीखता नहीं है. वह उड़कर सुरक्षित जगह नहीं जा सकता है. मगर ऐसा भी नहीं है कि वह जीना नहीं चाहता है. रौशनी ने उससे रास्ता छीन लिया है. इसी तरह बुखार में हम करना बहुत कुछ चाहते हैं. लेकिन ये करना सम्भव नहीं होता. इसलिए उसी उल्लू की तरह रौशनी के अँधेरे में ठोकरे खाते हुए अपने अनुकूल समय की प्रतीक्षा करते हैं.  शाम को चलने वाली रेल से...

तुम बहुत पहले से मेरे दिल मे हो

भंवरा गुनगुनाता है पिछली गर्मियों का गीत। हवा पिरोती है सीमेंट की जाली के कान में उसी गीत की और सतरें। रेगिस्तान की दोपहर में गिरते हैं आवाज़ के टुकड़े। पहली बार सुनते हैं हम कोई आवाज़ और उसमें कोई अजनबीपन नहीं होता। तुम बहुत पहले से मेरे दिल मे हो जैसे रेगिस्तान में वीराना रहता है। * * * बात करना गमलों में फूल रोपने जैसा है। तुम जो मिल जाओ वह जाने कैसा होगा। * * *

करने से होने वाली चीज़ें

कोई पल जो बेहद भारी लगता है, वह कुछ समय के बाद एक गुज़री हुई बात भर रह जाता है.  रात की हवा में शीतलता थी. दिन गरम था. साँझ के झुटपुटे में मौसम जाने किससे गले मिला कि सब तपिश जाती रही. हवा झूलने की तरह झूल रही थी. रह-रहकर एक झोंका लगता. आसमान साफ़. तारे मद्धम. कोलाहल गुम. रात का परिंदा आसमान की नदी में बहता जाता है. इसी सब के बीच आँखें अबोध सी शांत ठिठकी हुई.  बदन के रोयों पर शीतल हवा की छुअन से लगता कि हरारत भर नहीं तपिश भी है. जिसे बहुत सारी शीतलता चाहिए. नींद की लहरें आँखों को छूने लगतीं. धीमे से सब बुझ जाता.  एक बेकरारी की मरोड़ जागती है. करवट दर करवट. रात की घड़ी से एक हिस्सा गिरा. दूसरी करवट के बाद दूसरा. तीसरी करवट के समय अचानक उठ बैठना. सोचना कि हुआ क्या है? क्यों नींद ठिठकी खड़ी है. किसलिए बदन करवटें लेता जा रहा है. समय का पहिया आगे नहीं बढ़ता.  बिस्तर ठंडा जान पड़ता है. हाथ सूती कपडे से छूते हैं तो सुहाना लगता है. बुखार अपने चरम पर आता. जहाँ सबकुछ एक सामान तपिश से भर जाता है. दवा लेकर आँख बंद किये सोचता हूँ. होठ गुलाबी हो गए हैं. कच्चे, एकदम कच...

वो जाने क्या शै थी?

छतरी के जैसे खिले हुए दो फूल याद आते रहे. रात चाँद था. खुली छत पर गरम मौसम की सर्द हवा थी. बदन की हरारत पत्थरों की तरह टूटती रही. भारीपन और बेअसर करवटें. दवा नाकाम. जाग में नींद का इंतज़ार. इंतज़ार में कुछ करने की चाह. इस चाह में कुछ न कर पाने की बेबसी. जैसे किसी योद्धा का का गर्व चूर होता है. सब कुछ ठोकरों पर रखे हुए. जीवन के उड़नखटोले पर बेखयाली में गुजरते दिनों पर कोई प्रेत का साया गिरा. मन एक भीगा हुआ फाहा होकर सब उड़ना भूल गया. क्यों और अच्छा लगता जाता है आपको? फिर इसी सवाल पर बहाने बनाते हुए. झूठी दलीलें देते हुए. सोचना- "तुम कह क्यों नहीं देते कि कई बार वहीँ होने का मन होता है. जहाँ छुअन एक सम्मोहन से परे बड़ी ज़रूरत हो." इधर आ जाओ. ये सुनकर मैं कहता हूँ- "आज मैं खुद मुझे अच्छा नहीं लग रहा" सुबह से बिस्तर पर पड़े हुए कभी सीधे कभी औंधे लेटे हुए. ये देखते हुए कि क्या बजा है. ये सोचकर हताश होते हए कि समय रुक गया है. बहुत दूर कहीं. किसी जगह जहाँ गायों के गले में बंधी घंटियों का हल्का स्वर सुनाई देता है. जहाँ शाम ढले एक अलाव हर मौसम ...

इतने सारे दुःख उगाने के लिए

ईर्ष्या मत कीजिये  इतने सारे दुःख उगाने के लिए  मैंने बहुत सारी चाहनाएँ बोईं थीं. धूल भरी आंधियां चलने लगीं. रेलवे स्टेशन पर किसी नये ब्रांड का लेबल था. पानी की ख़ुशबू बोतलों में बंद थी. अचानक मन ने कहा- “अच्छा हुआ.” धूल भरी आंधी. गरमी को पौंछने लगीं थी. एक तकलीफ गयी तो दूसरी आ गयी. पहले बदन पसीने से तर था. अब बदन को धूल ने संवारना शुरू कर दिया. बिखरे बालों के बीच बची हुई जगह पर बारीक धूल भरने लगीं. रुमाल उदासा जेब में पड़ा रहा. कई बार हाथ जेब तक गया मगर खाली लौट आया. क्या होगा इतना सा पौंछ देने से? जब बहुत सा कुछ आता हो तो उसे रोकने के लिए बहुत थोड़ा काम में नहीं लेना चाहिए. कभी-कभी बहुत सी खुशियाँ आती हैं. अचानक. लहराती. हरहराती. अचम्भित करती हुई. उस वक़्त पीछे छूट गए छोटे-बड़े दुखों का बांध बनाना बेकार है. दो रोज़ पहले कुछ एक घंटे की यात्रा बाकी थी तब कोच सहायक चादरें समेटने लगा था. उसने हमारे कूपे के परदे में जरा सा झाँका. उसकी शर्मीली झाँक में ख़याल रहा होगा कि काश ये चादरें भी समेट ली जाएँ. वह नहीं रुका. जो चीज़ें जहाँ जाकर खत्म होती हैं. उन्हें वहां तक जाने...