ख़ामोशी से भरा घर

हवा ने कितनी ही थपकियाँ दी होंगी. आज सुबह मैं उस दरवाज़े के सामने खड़ा था. दरवाज़ा चुप था. ऐसे चुप जैसे कोई किसी अपने के लौट आने पर हतप्रभ चुप खड़ा होता है.वह पूछना भी नहीं चाहता कि अब किसलिए आये हो? जब गए थे तब सोचा न था कि जाने के बाद क्या होगा. घर, रिश्ते, चीज़ें सब एकांत में छीजने लगते हैं. मैं झुकर थैले के आगे वाली जेब में चाबी खोजता हूँ. 

ख़ामोशी से भरा घर हमें पुकारता होगा?

ना. मैं अपने आप से ना कहता हूँ. इसलिए कि घर तब तक है जब तक कोई उसके लिए है. जब वहां कोई नहीं है तब घर एक निर्जीव चीज़ है. अपने पक्ष में इस तरह की तकरीर करते हुए चाबी निकाल लेता हूँ. घर के दरवाज़े पर लगी कुण्डी का अन्दर वाला एक स्क्रू गिर गया है. असल में कई बार उसे कसा मगर पेच बचा नहीं था. अक्सर रिश्तों के, प्रेम के, नफरत के, ईर्ष्या के और लगभग हर अनुभूति के पेच मर जाते हैं. 

उन पेचों को हम बार-बार कसना चाहते हैं मगर चूड़ी होती नहीं है. इसी तरह मैंने हत्थी के पेच को कई बार कसा मगर कुछ रोज़ बाद फिर से ऊपर की तरफ से ढीला हो जाता. की-होल में चाबी आसानी से घूमती नहीं है. कुण्डी को पकड़ के बाहर की ओर खींचो तब एक बार फिर और खींचो तब दूसरी बार घूमती है. अंगुलियाँ हत्थी से हटती तब तक पक्का सोचा कि इस बार बदलवा लूँगा. 

रेल की खिड़कियों से आई गर्द में सने कपडे. हाथों में लोहे और पसीने की मिली जुली गंध. बाल चिपके हुए. दरवाज़ा खुलते ही गर्द की एक बारीक चादर के पार रखे हुए सोफे. आहिस्ता से आगे बढ़ने पहले मैं स्विच ऑन करता हूँ. छोटा पिट्ठू थैला आँगन पर रखूं? फिर ठहर जाता हूँ. एक कमरे का दरवाज़ा खोलकर बिस्तर पर रखता हूँ. चादर पर एक कवर बिछा है. कवर पर भी बारीक गर्द है. कवर हटाते हुए चादर पर अंगुलियाँ फेरता हूँ. वह चादर भी बारीक धूल से भरी है. ज़रा सा झुक कर सूंघता हूँ कि पिछली बार हमारे यहाँ होने की गंध कितनी बची है. वहां हमारी गंध नहीं है. बस गर्द है. 

तुम हमारे किसी तरह न हुए 
वरना दुनिया में क्या नहीं होता. 

शायर मोमिन खां मोमिन की तरह बेचैनी छुपाये हुए शिकवे को सरल करता हूँ. सादगी से कहता हूँ कि तुम्हारा ही होने को जी चाहता है. मगर हर बार घर से निकलता हूँ. इस घर ही नहीं, जहाँ कहीं रहता हूँ. वहां से कहीं न कहीं निकलना होता है. 

अब लौट आया हूँ तो जी चाहने लगा कि बैठ जाऊं. सोफ़ा पर डाले हुए कवर हटा दूँ. चाय के लिए इन्डक्शन ऑन कर लूँ. सेंडल खोलकर चप्पल पहन लूँ. कोई दूसरा टी पहन लूँ, कोई शोर्ट डाल लूँ. मगर सोचता हूँ करता कुछ नहीं. जिस सोफ़ा से कवर हटाया था उसपर बैठ जाता हूँ. 

किस काम को कहाँ से शुरू करूँ, ये बात समझ नहीं आती. 

अचानक देखता हूँ कि दोपहर के बारह बजने को आये. दो बार चाय बन गयी. घर से डस्टिंग क्लीनिंग हो गयी. बर्तन धुल गए. थैला खुल गया. कपड़े बिस्तर पर फ़ैल गए. चादरें धुल कर बाहर सूखने गयी. वह जो कुछ घंटे पहले उदास घर था, अब उदास नहीं रहा. एक बात सुनो. कुछ एक घंटों में इतना कुछ बदल जाता है. तो किसी के चले जाने के बाद ज़िन्दगी कितनी बदल चुकी होती होगी. 

एक चिड़िया जाली पर बैठकर घर के अन्दर झांकती है. मैं देखता हूँ कि उसके गुलाबी पैर बहुत सुन्दर है. 

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