ईर्ष्या मत कीजिये
इतने सारे दुःख उगाने के लिए
मैंने बहुत सारी चाहनाएँ बोईं थीं.
धूल भरी आंधियां चलने लगीं. रेलवे स्टेशन पर किसी नये ब्रांड का लेबल था. पानी की ख़ुशबू बोतलों में बंद थी. अचानक मन ने कहा- “अच्छा हुआ.” धूल भरी आंधी. गरमी को पौंछने लगीं थी. एक तकलीफ गयी तो दूसरी आ गयी. पहले बदन पसीने से तर था. अब बदन को धूल ने संवारना शुरू कर दिया. बिखरे बालों के बीच बची हुई जगह पर बारीक धूल भरने लगीं. रुमाल उदासा जेब में पड़ा रहा. कई बार हाथ जेब तक गया मगर खाली लौट आया. क्या होगा इतना सा पौंछ देने से?
जब बहुत सा कुछ आता हो तो उसे रोकने के लिए बहुत थोड़ा काम में नहीं लेना चाहिए.
कभी-कभी बहुत सी खुशियाँ आती हैं. अचानक. लहराती. हरहराती. अचम्भित करती हुई. उस वक़्त पीछे छूट गए छोटे-बड़े दुखों का बांध बनाना बेकार है. दो रोज़ पहले कुछ एक घंटे की यात्रा बाकी थी तब कोच सहायक चादरें समेटने लगा था. उसने हमारे कूपे के परदे में जरा सा झाँका. उसकी शर्मीली झाँक में ख़याल रहा होगा कि काश ये चादरें भी समेट ली जाएँ. वह नहीं रुका. जो चीज़ें जहाँ जाकर खत्म होती हैं. उन्हें वहां तक जाने देना चाहिए. मैंने सोचा कि इस सहायक को मालूम होना चाहिए कि ये यात्रा अवश्य खत्म होगी. ये यात्री कुछ देर में उतर जायेंगे. मगर शायद उसे कोई जल्दी थी. जैसे किसी टूटते हुए रिश्ते में लोग इंतज़ार नहीं करते. वे उसे टूटता जानकर उसी पल तोड़ देना चाहते हैं.
कहाँ जा रहे हो? जब भी कोई मुझसे पूछता है तो मेरे पास एक पक्का जवाब होता है. जब भी ये सवाल मैं ख़ुद से पूछता हूँ तो चिंता में घिरने लगता हूँ. मैं अपने प्रयोजन और किसी दिशा में चलते जाने को सोचने लगता हूँ. किसी और के पूछने पर बताते हुए जो काम बेहद सार्थक लगता है. वही ख़ुद के पूछने पर निरर्थक जान पड़ता है. जब भी कोई मुझसे पूछता है कि कहानियां क्यों लिखते हो तो मैं उसे बताता हूँ- “कहानियां लिखने से मेरे मन को आराम आता है” जब यही सवाल मैं ख़ुद से पूछता हूँ तो अपने भीतर खोज में दौड़ने लगता हूँ कि कहानी लिखने से जो आराम आना था, वह कहाँ रखा है? मैं थकने लगता हूँ. मुझे अपना आराम कहीं नहीं मिलता.
मैं सोचने लगता हूँ कि कहानी लिखना कहीं ऐसा तो नहीं कि एक भंवरा कमरे में बंद हो गया है. वह बाहर जाने के लिए खिड़की से आती रौशनी की ओर उड़ता है. जाली से टकराता है और गिर पड़ता है. वह कोई दूसरा रास्ता नहीं तलाशता. वह एक बार रुककर चारों तरफ नहीं देखता. कहीं कोई झिरी. कोई छेद. कोई खुला दरवाज़ा. वह कुछ नहीं देखता. उसकी मति भ्रष्ट हो चुकी होती है. एक ही तरफ जाने को कहती है. क्या मैं कहानियां लिखकर जिस आराम को सोचता हूँ. ये कहीं ऐसा ही कुछ तो नहीं.
लेकिन
अतीत की दस्तकें जब लिख दी जातीं है तो उनका शोर कम हो जाता है. ये अच्छी बात है.
लौटते हुए. ऐसा कहना ठीक नहीं है. वापसी कहना अच्छा है. लौटने के लिए मन भी चाहिए होता है. वापसी में केवल उसी स्थान तक जाना होता है जहाँ से चले थे. ये बात आधी रात को याद आई. एक युवती किसी दूसरे पेसेंजर से कह रही थी कि क्या आप अपनी बर्थ बदल लेंगे. मेरे पिता बेहद बीमार हैं. मेरी माँ का वजन बहुत ज्यादा है. वह व्यक्ति बर्थ बदलने को राज़ी हो गया और हमारे कूपे में ऊपर वाली बर्थ पर आ गया. रात पौने तीन बजे हमें उतर जाना था. इसी गरज में मैंने कोच के दरवाजे तक का फेरा दिया. बूढा आदमी अपनी साइड लोवर पर बैठा हुआ था. उसने पर्दे के बीच से अपना सर गैलेरी में निकाल रखा था. वह कातर आँखों से चलती रेल के बंद कोच में कुछ देख लेना चाहता था. गाड़ी लेट थी. मैं वापस अपनी जगह आया. मैंने अपनी तरफ के पर्दे को ज़रा सा हटा दिया कि उस आदमी को देख सकूं.
वह आदमी आठ दस मिनट के अंतराल से अपने पाँव सीट से नीचे करता. कुछ सोचता और फिर वापस ऊपर कर लेता. युवती की माँ गहरी नींद सो रही थी. युवती को मैंने देखा नहीं था. उसके वहां होने का कोई आभास भी न था. मुझे केवल सोयी हुई भारी बदन वाली औरत दिख रही थी. उसी औरत के साथ उम्र गुज़ार देना वाला आदमी जीवन से कोई स्थायी हल चाहता था. उसके चेहरे पर एक जानी-पहचानी बेचैनी थी. जैसी कभी मुझमें हुआ करती थी. मैं नयी जगह जाना चाहता था. ताकि तकलीफ कम हो जाये. लेकिन वहां पहुँचते ही तकलीफ सामने खड़ी होती थी. मैं उस आदमी को अँधेरे में देख रहा कि अचनक मुस्कुराने लगा. मैंने ख़ुद से कहा- “कितनी बेकार और दूर की सोचते रहते हो. संभव है कि इस आदमी को मानसिक परेशानी हो ही नहीं. हो सकता है केवल लघुशंका के अनियत हो जाने से परेशान हों.
कई-कई बार बहुत से रिश्ते वहां खत्म हो जाते हैं जहाँ कुछ नहीं होता.
गरम मौसम की रात बेहद ठंडी थी. मैं दरवाज़े पर खड़ा हुआ प्रतीक्षा कर रहा था कि अगला स्टेशन आये. जान लूँ कि कहाँ तक पहुंची है. मैं दरवाज़ा बंद कर देता हूँ. फिर वही सवाल कि कहाँ जा रहा हूँ. किसी के दरवाज़ा पीटने की आवाज़ से चौंकता हूँ. कोई रिजर्व कोच में आना चाहता है. मैं तुरंत दरवाज़ा खोल देता हूँ. लेकिन वहां कोई नहीं होता. दरवाज़ा पीटने की आवाज़ मुसलसल आती रहती है. दूर तक देखता हूँ. नावां सिटी स्टेशन पर पसरे हुए वीराने में एक अधेड़ और किशोरी तीसरे कोच के पास खड़े हुए प्रतीक्षा करते हैं कि दरवाज़ा खुल जाए. उनकी बेचैनी इस तरह बढ़ी होती है कि उनके पाँव लगातार आगे पीछे होते रहते है. मैं उनकी तरफ हाथ से इशारा करता हूँ. शायद वे समझ जाएँ कि कोई दरवाज़ा खुला है.
रेल चल पड़ती है. मैं ये नहीं देखना चाहता हूँ कि वे चढ़ पाए या नहीं. मैं ये देख नहीं सकता हूँ कि उनकी गाड़ी छूट गयी है. छूटना मुझे हताश करता है. मुझे रुलाता है. इसलिए मैं वाशबेसिन के शीशे में देखने लगता हूँ. वहां पर मुझे वही बूढा आदमी दीखता है. मुझे देखकर अचानक पलट जाता है. मुझे फिर अफ़सोस होने लगता है कि इस आदमी को सचमुच लघुशंका की तकलीफ नहीं है.
मैं सिहर जाता हूँ.
एक बार एक लड़का मिला था. उसने अपनी अँगुलियों पर ब्लेड से चीरे लगा रखे थे. मैं अजनबियों से बात नहीं करता हूँ. मुझे इसमें कोई ख़ुशी नहीं मिलती. उनसे बात करना ऐसा है जैसे किसी दूसरे के दुखों में झांक लेना. लेकिन उस लड़के ने मुझसे किताब मांग ली थी. आठ दस पन्ने पढ़कर लौटा दी. मैंने पूछा- “पसंद नहीं आई?” उसने कहा- “पसंद आने पर भी पढ़ नहीं सकूँगा” मैंने पूछा- “आपकी अँगुलियों में लगे चीरों में दर्द के कारण?” वह बोला- “नहीं. ये मैं खुद लगाता हूँ. कभी स्मैक पीता था. न मिलने पर तकलीफ होती थी. इसलिए एक चीरा भरते ही दूजा लगा लेता हूँ ताकि दर्द पर ध्यान रहे.”
मैं उसे कहना चाहता था लेकिन नहीं कहा. कि अच्छा हुआ स्मैक ही पी थी. प्रेम नहीं किया था.
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तुमने सोच लिया है न ?
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[Painting image courtesy : Saatchi art]