तुमको इस बात का यकीन न होगा किन्तु ये सच है कि हर व्यक्ति एक ख़ब्त का शिकार होता है। उसी ख़ब्त के साथ जीता है और उसी के साथ मर जाता है। तुम ख़ब्त को सनक समझना या फिर मैडनेस ज्यादा ठीक होगा।
मैं अपनी याददाश्त में जितना पीछे जा सकता हूँ, वहाँ से अपने भीतर एक ख़ब्त पाता हूँ। प्रेम करने के ख़याल की ख़ब्त। इसे प्रेम करना न समझना। बस प्रेम करने का ख़याल या विचार ही समझना। इसलिए कि ये दोनों अलग स्थितियां हैं। ये दो पायदान भी नहीं है। कहीं ऐसा न समझने लगो कि पहले ख़याल आएगा फिर प्रेम किया जाएगा या होगा।
प्रेम करने का, प्रेम के ख़याल से कोई वास्ता नहीं है। प्रेम एक स्वतः स्फूर्त, सदानीरा, असीम शै है। वह जिसके पास होती है, उसे प्रेम करना नहीं पड़ता। उसका प्रेम उसके आचरण में घुला रहता है। ऐसा व्यक्ति जहाँ कहीं होता है, जिस काम को करता है, वहाँ केवल प्रेम होता है।
प्रेम से भरा व्यक्ति, प्रेम करने के ख़याल से भरे व्यक्ति से अधिक ख़ब्ती होता है। इसलिए कि उसे आने और जाने वाले, बने और बिगड़े हुए से कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब कोई जीवन से चला जाता है तो वह घर, बगीचे और दफ्तर से प्रेम करता रहता है। जब वह लौट आता तो उससे प्रेम में बना रहता है। ऐसे व्यक्ति के पास शिकवे नहीं होते। ऐसे व्यक्ति पत्थरों के बीच की घास होते हैं। हर हाल में, अपने स्वभाव में बने रहते हैं।
लेकिन प्रेम करने के ख़याल में होने की ख़ब्त व्यक्ति को कनखजूरा बना देती है। वह अपने ख़यालों के असंख्य पांवों पर भागता फिरता है। अंधेरे कोनों में दुबका रहता है। उसका जीवन प्रेम की रोशनी में कम और इंतज़ार के अंधेरों में अधिक बीतता है। जब वह रोशनी से गुज़रता है तो उसे देखने वाले सब घबराये रहते हैं। उनको लगता है कि वह कहीं उनके प्रेम को अपने नाखूनों से ज़ख़्मी न कर दे। जबकि उसे किसी के प्रेम से वास्ता नहीं होता। क्योंकि वह प्रेम करने से परे रहता है। वह होता है प्रेम करने के ख़याल की ख़ब्त में डूबा हुआ।
असल में प्रेम करने के ख़याल में होना, प्रेम की बारहमासी नदी से अधिक सम्मोहक होता है।
कितने ख़ब्ती, कितनी ही ख़ब्त। जैसे लिखना।