बतुलियों का देस



एक ठहरी हुई सांस 
बेचैन निग़ाह में उदासी घोलती है.

बारिश नहीं थी मगर थी कि एक आवाज़ ने बुनी बारिश. एक सूखी रात का ये पहला पहर था. बंद आँखों में कहीं दूर हिलते हुए होठ खिले थे कि कोई संगीतकार, साजिंदों को अपनी छड़ी से प्रवाहित कर रहा था. लड़का उसे कहना चाहता था कि सांस लेने में कठिनाई है मगर वह चुप रहा. उसने चाहा कि लड़की बोलती रहे. लड़की की आवाज़ दवा थी. जब वह बोलते हुए ठहर जाती तो ठहर के बाद प्रतिध्वनि गूंजती.

चुप्पी में लगता कि बारिश रुक गयी है? लड़का पूछता- "तुम हो?" दूजी तरफ से जवाब आता. तीन बार दिया गया जवाब. जैसे हाँ हाँ हाँ या ना ना ना.

वह जवाब लड़के को बाहर की ओर खींच ले जाता. बाहर बारिश नहीं हो रही होती. लड़का हैरत से भरकर फिर से आवाज़ को खोजने लगता. लड़की की आवाज़ में बारिशें बुनने का हुनर था.

लड़की ने कहा- "तुम चुप क्यों रहते हो?"

लड़के ने अपने आप को ये कहने से रोक लिया कि तुम्हारी आवाज़ को सुनते हुए बारिश सुनाई पड़ती है. मन एक सूखा रेगिस्तान है इसलिए अनवरत भीगते जाना चाहता है.

लड़की की आवाज़ फिर से आई- "क्या हम पहले कहीं मिले थे? अगर नहीं तो फिर ऐसा क्यों लगता है कि तुम बिन कुछ नहीं."

लड़के ने कहा- "बचपन में पढ़ी प्रेम कहानियों से मुझे ऊब होती थी. ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई दो, एक होकर अंतिम विदा का गीत गाकर चुप हो जाते हैं. बचपन में रूह का नाम न सुना था. तब रूहें सिर्फ प्रेतों के किस्से थीं. शाम के धुंधलके में बाहर जाना निषेध था. ये प्रेतों का समय था. ये भय और जिज्ञासा के मिलन का समय था."

इतना कहकर चुप हुआ लड़का सोचने लगा कि काश, बचपन में ऐसी रूह का कोई किस्सा सुना होता जो प्रेत न होती. उस रूह के मिलने का समय मालूम होता. यकीनन मैं उस समय को अपने भटकने के हिस्से में जमा रखता.

लड़की ने पूछा- "क्या तुम चाहते हो कि कहीं रूह मिले.?"

लड़के ने कहा- "तो क्या तुम रूह हो?"

इस सवाल पर लड़की ने सवाल किया- "क्यों?"

लड़के ने कहा- " बदन तो कहीं पर भी मिल जाता है. किसी न किसी तरह. किसी लम्बे छोटे इंतज़ार के बाद. हम उसका क्या करें कि बदन उदास नज़र के रंग नहीं बदल पाता. अनमने मौसम को विदा नहीं कह सकता. उसे केवल रूह ही बुहार सकती है."

"अच्छा क्या तुमने कभी सोचा है कि रूह अगर होती होगी तो कैसी होती होगी?" लडकी ने पूछा.

लड़के ने कहा- "तुम्हें छूकर, तुम्हें छूने के अहसास से गुज़रकर, तुम्हें बेहिसाब याद करके लगता है कि रेत के बीच पड़े हुए सीपियों के खोल में जो हवा रहती है न उस हवा का गीत रूह जैसा होता होगा. एक ऐसा सुर जो मधुर हो किन्तु जिसे देखा न जा सके. जैसे तुम्हारी साँस."

"अच्छा." ये कहकर लड़की कुछ देर चुप हुई फिर उसने कहा- "तुम्हारी रूह की कल्पना सुन्दर है. मैं कभी सीपी का खोल हुई तो ज़रूर तुम्हारा इंतज़ार करूंगी."

लड़की सीपी का खोल नहीं थी. उसकी आवाज़ बारिश थी मगर बारिश नहीं थी. रेगिस्तान तप रहा था. लडके को लगता कि एक कोड़ा बरसता है. कि कोई बुलाता है, मुझे जाना है. अब न होगा. विदा, विदा, विदा. इस कोड़े की तड़प में याद की बही से रह-रहकर गर्द उड़ती रहती.

लड़का चलते हुए हांफता, अपना पसीना पोंछता आगे बढ़ता जाता. दूर तक रेत ही रेत पसरी थी. 
* * *

सिलसिले में थोड़ी सी कहानी कहता हूँ और फिर चुप हो जाता हूँ. जैसी बात लिखूं मन पर वैसा रंग चढने लगता है. उदासी लिखते ही लगता है कि मैं उनके साथ अच्छा नहीं कर रहा. उनकी बातें लिखता हूँ तो लगता है कि बस वे दोनों मेरे पास आकर बैठ जाएँ और मैं उनको देखूं.

जब कभी लड़के की पीठ पर कोड़ा बरसता है मैं सिहरने लगता हूँ. मुझे लगता है कि वह लड़का मैं ही हूँ. लड़की जब उदासी से कहती है कि मैं तुम्हारा इंतज़ार करुँगी तब लगता है कि मैं ही किसी इंतज़ार में बैठ गया हूँ. 
* * *