एक सहकर्मी थे. उन्होंने रेडियो कॉलोनी में आवंटित मकान के पीछे खाली छूटी हुई ज़मीन पर फल और सब्ज़ी के लिए क्यारियां बना ली थीं. प्रेमपूर्वक देखभाल करते. रेगिस्तान में पानी की कमी के बावजूद अपनी क्यारियों के लिए जितना संभव होता उतना पानी उपयोग में ले लेते.
कभी-कभी कॉलोनी के पड़ोसी कहते कि गर्मी के दिन आ गए हैं अब पानी की सप्लाई कम आती है. आप कम पानी का प्रयोग किया करें. इसके जवाब में वे लड़ने लगते. लोगों ने कहना छोड़ दिया. बाड़ी फलती रही. सात-आठ दिन बाद शहर के साथ आकाशवाणी को पानी की सप्लाई मिलती तो सबसे पहले उनकी बाड़ी का नल खुलता. चिंतित और परेशान कॉलोनी के रहवासी कुढ़ते रहते कि अगली बार जाने कब पानी आये.
एक दिन उनका स्थानांतरण हो गया. वे अपने पैतृक घर के पास जा रहे थे. प्रसन्न थे. उन्होंने ट्यूब लाईट के डंडे और फ्यूज हो चुके बल्ब तोड़े और बारीक टुकड़े किये. खिडकियों के टूटे हुए शीशों को इकठ्ठा किया. उनके छोटे टुकड़े बनाये. अपनी बाड़ी से एक एक पौधा उखाड़ा. मिट्टी खोदी और उसमें कांच के टुकड़े मिला दिया. इसके बाद उनके चेहरे संतोष से भर गए. उन्होंने हल्के मन से विदा ली.
जब हम जा रहे हैं तो ज़रूरी नहीं कि फूल लगाकर जाने में ख़ुशी पायें. हो सकता है मिट्टी में कांच बोने से ही सुख आये कि हमारे बाद कोई यहाँ हाथ भी न डाल सके. अपने-अपने संस्कार हैं.
क्या उनको भी लग गया है कि वे सचमुच जा रहे हैं?