चादर की सलवटों के नीचे
थोड़ी सी रात बची रह गयी थी.
इसी तरह अधेड़ आदमी की उम्र की सलवटों में
कहीं-कहीं थोड़ा सा लड़का बचा हुआ था.
अधेड़ उम्र की गरदन में बेहिसाब दर्द था. उम्र की सलवटों में बचे हुए लड़के ने इसकी परवाह नहीं की. सुबह पांच बजे का जगा, दीवार का सहारा लिए एक चौकी पर बैठा हुआ अधेड़ निरीह नहीं लग रहा था. वह एक गलत खोल में ठूँसे हुए अकड़े और बेढब बिछावन की तरह दिख रहा था. दर्द की लहर उठती तो उसकी आँखें मुंद जाती. वह अपनी गरदन पर अँगुलियों को सख्ती से घुमाता हुआ अनुमान लगता कि कोई गाँठ है क्या? फिर सोचता कि अगर गांठों वाली बीमारी हुई तो और कितने दिन ज़िन्दा रहेगा?
उतनी ही अधेड़ औरत चाय के दो प्याले चौकी के बराबर रखकर बैठ जाती है. "चाय के साथ कुछ लेंगे?"
आदमी चाय की ओर देख नहीं सकता. वह गरदन के दर्द से हार रहा होता है. जैसे कि गरदन के दर्द ने उसे चित्त कर दिया है मगर अभी तक खेल से बाहर होने का फैसला नहीं सुनाया है. वह सामने की खिड़की की ओर देखा हुआ कहता है- "नहीं कुछ नहीं चाहिए"
"हाँ कभी कभी मेरे साथ भी ऐसा होता है कि पहली चाय के साथ बिस्किट नहीं चाहिए होते और कभी लगता है उनके बिना तो चाय पी ही न जाएगी" औरत ने चाय को सिप करते हुए कहा.
आदमी ने कहा- "हमारे काम पूरे हो जाते हैं और उम्र बची रह जाती है. तब ऐसा होता है"
औरत खिड़की के नीचे बने आले में रखे हुए प्लेयर को चला देती है. पुरुषोत्तम दास जलोटा गाने लगते हैं. ठुमकी चलत रामचन्द्र बाजत पैंजनियां. उनेक पीछे समूह स्वर में यही आवाज़ आती है. कीर्तन चलता रहता है. आदमी सोचता है कि रामचंद्र जब अधेड़ हो गए होंगे तब क्या उनको भी गर्दन में दर्द हुआ होगा? क्या किसी ने उनकी वह पीड़ा देखी होगी?
औरत अपनी आँखें बंद कर आँगन में चल-गिर रहे नन्हे रामजी को सोचने लगती है. उसका हाथ सहसा अपने घुटने की ओर जाता है जैसे गिरे हुए रामजी के घुटनों के धूल झाड़ रही हो. आदमी औरत को देख नहीं रहा. वह ये सब सोच रहा है. आँखें बंद किये हुए औरत उसकी प्रिय छवि है. जब भी औरत की ऑंखें खुली होती हैं तब उनमें से एक लड़की झांकती है. सायकिल पर सवार मोहनपुरा ब्रिज पर चढ़ती हुई पीछे मुड़ देखने का साहस करती हुई. उस लड़की की याद आते ही गरदन का दर्द घुटनों तक आ जाता है. वह सोचता है कहाँ गुमा दिया सबकुछ. पुल पर चढ़ती सायकिल सवार लड़की और उसे देखता हुआ लड़का.
अब बाद बरसों के जब भी औरत आँखें बंद रखती है वह आश्वस्त रहता है की वह लड़की कहीं गुम रहती है.
"बंद कर दूँ या चलने दूँ?" औरत पूछती है.
अधेड़ आदमी अपनी गरदन को घुमाता है. दर्द की एक लहर फिर से दौड़ पड़ती है. उसके चेहरे पर छुपाने में भी कुछ जाहिर हो जाता है. औरत पूछती है- "तबितय ठीक नहीं?" आदमी कहता है- "क्या इस प्लेयर में कुमार गंधर्व नहीं है?"
औरत पूछती है- "चाय और पियोगे?"
कभी-कभी हम खत्म हो चुके होते हैं. जैसे जिम मोरिसन खत्म हो जाता है. जैसे बेल्ली होलीडे खत्म हो चुकी होती है. कभी-कभी हम सिल्विया प्लाथ की तरह खत्म हो चुके होने के बाद सोचते हैं कि अब इस देह में बसे जीव का कुछ करना होगा और फिर उसे सलीके से ठिकाने लगाते हैं. लेकिन अक्सर हम खत्म होने के बाद बच्चों की अँगुलियों में फंसकर बच जाते हैं. किसी सांवली कुदरती सूरत की याद की गिरहों में रह जाते हैं मगर ज़्यादातर हम होते हैं उसी अधेड़ औरत या आदमी के पसीने की गंध सूख जाने के डर से भरे हुए, हम जिसके साथ अनेक बरसों से रह रहे होते हैं.
सुनता है गुरु ज्ञानी
गगन में आवाज़ हो रही छिन झिंग छिनिंग झिंग छिन
औरत रसोई में जा चुकी थी. वह अधेड़ आदमी भी पीछे गया. उसे कहता है- "वाशरूम जा रहा हूँ" उसे ये कहने की ज़रूरत नहीं है कि औरत जानती है मगर वह इसलिए कहता है कि बरसों तक साथ रहने के बाद बात करने के बहाने बचाए रखने होते हैं. इससे मर जाने के बाद भी जीते रहने में आसनी होती है.
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रातों में देर तक चुप जागते सोना जैसे ये न कह पाना कि अब तनहा छोड़ दो. मन हो तो इंतज़ार करना.
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कोई एक पंक्ति कहीं छूट गयी थी. समझ न आया की इसे कहाँ रखूं. "बात करने जैसा हाल बचा नहीं है."
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[Painting image : Ashley Garrett]
[Painting image : Ashley Garrett]