Skip to main content

तुम कुछ नहीं हो.

हिंदी अब असफल और धोखेबाज़ प्रेमियों की भाषा बन गयी है. बिलकुल मीठी. कहना कुछ करना कुछ. इसलिए हिंदी नेताओं की प्रिय भाषा है.

काला पगोडा, कहानी पढ़ते हुए मैं रुक गया. मैंने स्वदेश दीपक की ओर देखा. वे कुछ लिख रहे थे. मुझे लगा कि वे लिख नहीं रहे हैं कुछ बना रहे हैं. क्या? पन्नी और तम्बाकू से एक सिगरेट. मैं एकटक उनको देखने लगता हूँ. इसलिए कि वे क्षणांश को मेरी ओर देखें. ताकि मैं उनको इशारा कर सकूं कि आप इस सिगरेट का कोई कश मेरे लिए भी रखना.

अचानक मेरा ध्यान भटका. जैसे स्वदेश दीपक ने कोई जादू किया. वे सिगरेट लेकर खिड़की के रास्ते बाहर चले गए. सिगरेट के धुएं की गंध खिड़की के आस पास होनी चाहिए थी मगर वह मेरे करीब ही कहीं थी. मैंने अपनी अँगुलियों को सूंघा. उनमें तम्बाकू की गंध थी. मैंने बहुत दिन से सिगरेट को छुआ तक नहीं था. क्या स्वदेश दीपक धुआँ बनकर शब्दों में छुप गये हैं? इसी उधेड़बुन में किताब को पलटा तो पाया कि कवर के पीछे बैठे स्वदेश दीपक सिगरेट सुलगाने वाले ही हैं.

लेकिन इस तस्वीर के सिवा वे जा चुके थे.

मैंने आवाज़ दी- "स्वदेश दीपक सर रुकिए. सुनिए तो... क्या सचमुच भाषा किसी समाज का बिम्ब होती है? क्या भाषा की बदलती हुई सूरत, समाज के साथ-साथ बदलती है."

एक चेहरा खिड़की से झाँका. "ये बात मैंने तेरह-चौदह साल पहले एक पात्र से कहलवाई थी. अब पता नहीं बात सच की ओर जा रही है कि नहीं?" फिर से धुआँ बेतरतीब होकर खिड़की के रास्ते कमरे में आ गया.

वे खिड़की के पास खड़े थे फिर भी मैं जाने क्यों डर रहा था. मुझे लग रहा था कि स्वदेश दीपक सर कहीं जाने वाले हैं. मैंने जल्दबाजी में पूछा- " भाषा से समाज की प्रवृति की ओर इसी प्रकार से संकेत किया जाता है?" मेरे प्रश्न पूछे जाने तक स्वदेश दीपक दूर जा चुके थे. उनकी परछाई का छोटा सा हिस्सा खिड़की की तीलियों पर पड़ रहा था.
* * *
मैं एक नोट लिखना शुरू करता हूँ. सोचा है कि लिखकर इसे खिड़की पर टांग दूंगा. मेरी अनुपस्थिति में स्वदेश सर इस खिड़की के पास से गुज़रे तो इसे पढ़ लेंगे.

"प्यारे स्वदेश सर, मद भरे पात्र कैसे रचे जाते हैं? ये कहीं से भी सीखा जा सकता है किन्तु मैं चुन सकता तो आपकी कक्षा में बैठना चुनता. कृपया जल्दी समय दें"

मैं नोट को खिड़की पर टांग देता हूँ.

स्वदेश दीपक की कहानी से जंगली घोड़ों का टोला भागता हुआ बाहर आता है. खिड़की की तीलियों के बीच से भागते हुए वे घोड़े एक रास्ता बना देते हैं. वर्जनाओं की तीलियाँ टेढ़ी हो जाती हैं. 
* * *

अचानक तीलियों के पास एक आदमी खड़ा दिखाई देता है. वह कमरे में झांकता है. जैसे कुछ खोज रहा हो. मुझे देखकर अभिवादन करते हुए पूछता है- "एक मुर्गाबी इस खिड़की में आकर तो नहीं गिरी?" मैं उसकी बात को सच समझ बैठता हूँ और कमरे में झाँकने लगता हूँ. कमरे में कुछ नहीं था. मुर्गाबी तो क्या एक पंख भी नहीं. वह आदमी भी हैरत से देखता हुआ अपनी दुनाली को कंधे पर ठीक से टांग कर मुड़ जाता है.

वह आदमी मुड़ता है और लौटकर पूछता है- "तुम झूठ तो नहीं बोल रहे? अगर तुम सच कह रहे हो तो ये खिड़की की तीलियाँ मुड़ क्यों गयी है?" मैं कहता हूँ- "यहाँ से जंगली घोड़े भागे थे" वह आदमी कहता है- "वे ज़रूर स्वदेश दीपक के होंगे" मैं हैरत से भर जाता हूँ. उसे पूछना चाहता हूँ कि आप कैसे जान पाए हैं कि वे घोड़े भले ही जंगली थे मगर स्वदेश के ही थे. मेरे कुछ पूछने से पहले ही उस आदमी ने कहा- "एक बात बताओ. जब स्वदेश दीपक के जंगली घोड़े यहां से भाग सकते हैं तो मोपासां का शिकार मुर्गाबी यहाँ से अन्दर क्यों नहीं गिर सकती?" 
* * *

एक जेन दिखाई पड़ता है. मैं पूछता हूँ कि कम शब्दों में कोई ऐसी बात कही जा सकती है जिससे कायाकल्प हो जाये? वह कहता है- "तुम कुछ नहीं हो"

मैं कुछ नहीं हूँ. सचमुच! अहा. अचानक सारे दुःख सूखे पत्तों की तरह झड़ने लगते हैं. जब मैं कुछ नहीं हूँ तो चिंता किस बात की है? 
* * *

अब किसी को नहीं कहना चाहता हूँ कि तुमसे प्रेम है. ऐसा सुनने वाला पास बैठ जाना चाहता है. उसके पास बैठते ही कुछ चिंताएं फिर से उगने लगती हैं.

मैं कुछ नहीं हूँ होना ही अच्छा लग रहा है. शुक्रिया. 
* * *

[Painting image courtesy ; Chris Barnard]

Popular posts from this blog

स्वर्ग से निष्कासित

शैतान प्रतिनायक है, एंटी हीरो।  सनातनी कथाओं से लेकर पश्चिमी की धार्मिक कथाओं और कालांतर में श्रेष्ठ साहित्य कही जाने वाली रचनाओं में अमर है। उसकी अमरता सामाजिक निषेधों की असफलता के कारण है।  व्यक्ति के जीवन को उसकी इच्छाओं का दमन करके एक सांचे में फिट करने का काम अप्राकृतिक है। मन और उसकी चाहना प्राकृतिक है। इस पर पहरा बिठाने के सामाजिक आदेश कृत्रिम हैं। जो कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।  यही शैतान का प्राणतत्व है।  जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट और ज्योफ्री चौसर की द कैंटरबरी टेल्स से लेकर उन सभी कथाओं में शैतान है, जो स्वर्ग और नरक की अवधारणा को कहते हैं।  शैतान अच्छा नहीं था इसलिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी की ओर धकेल दिया गया। इस से इतना तय हुआ कि पृथ्वी स्वर्ग से निम्न स्थान था। वह पृथ्वी जिसके लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की थी। स्वर्ग जिसने तय किया कि पृथ्वी शैतानों के रहने के लिए है। अन्यथा शैतान को किसी और ग्रह की ओर धकेल दिया जाता। या फिर स्वर्ग के अधिकारी पृथ्वी वासियों को दंडित करना चाहते थे कि आखिर उन्होंने स्वर्ग की कल्पना ही क्य...

टूटी हुई बिखरी हुई

हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन ...

लड़की, जिसकी मैंने हत्या की

उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न...