नंगे आदमी के गले में टाई
नंगी औरत के पैरों में जूते।
आँख फाड़कर देखते हैं बच्चे और मर जाता है उनका बचपन।
भयावह हो गए हैं समाचार पत्रों के ई-एडिशन और डिजिटल एडिशन। अख़बार का प्रिंट जिन ख़बरों को प्रस्तुत करता है, वे ख़बरें वेब पोर्टल पर ख़ास महत्व नहीं रखती। वेब पर महत्व रखने वाली ख़बरें प्रिंट में कम ही दिखती हैं। मुझे इससे ये समझ आता है कि हमारे पास टैब या फोन है तो इससे निजता बनती है। इसी निजी स्पेस को सेक्स, कुंठा, शोषण और हत्या से भरा जा सकता है। लेकिन यही सब प्रिंट में नहीं रखा जा सकता क्योंकि छपा हुआ अख़बार या रिसाला परिवार के बीच रखा रहता है।
अर्थात व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को उसकी निजता में घुस कर नष्ट किया जाए और बाहर शालीन और सुसंस्कृत होने के दिखावे को बनाया रखा जाए।
क्या हिचक होनी चाहिए ये कहने में कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा अब चौथा धँधा हो गया है। अयोध्या प्रसाद गौड़ की किताब का शीर्षक है चौथा धँधा। ये शीर्षक उन्होंने वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ के उद्बोधन से लिया है।
साल नब्बे इक्यानवें में जोधपुर में कॉफ़ी हाउस से थोड़ा आगे हाई कोर्ट रोड पर पोरवाल सदन में नवभारत टाइम्स के जोधपुर ब्यूरो का दफ़्तर हुआ करता था। नारायण बारेठ ब्यूरो प्रमुख थे। वे मुझसे प्रेम करते थे तो ब्यूरो दफ़्तर में बैठने और ख़बरें लिखना सीखने के लिए बुला लिया था। एक टाइपिस्ट दो तीन घण्टे के लिए आता था बाक़ी समय मैं वहां बैठकर कुछ ख़बरें पढ़ता कुछ प्रेस नोट पर हाथ आजमाता।
बारेठ जी जब पत्रिका के कोटा संस्करण में थे तब उन्होंने कुछ फीचर लिखे थे। उनकी फाइल मुझे सौंप दी गई थी। मैंने उन फीचर को पढ़कर ये जाना कि मैं ऐसी ख़बरें ही लिखना सीखना चाहता हूँ। मुझे उन दिनों की याद से बहुत ख़ुशी होती है। नारायण बारेठ का सानिध्य सुख था।
कुछ महीने दिनेश जोशी, रमेश पारीक, एम आर मलकानी के साथ प्रेस की टेबल शेयर करने का अवसर मिला था। पत्रकार बाबू देवकीनंदन खत्री के रचे ऐयार सा होता है, ये मुझे जोधपुर के पत्रकारों को देखने से समझ आया था। वे लोग जादुई थे मगर मुझे प्रिय थे।
मैं कभी सोजती गेट के पास नवज्योति के कार्यालय चला जाता था। वहाँ रुद्राक्ष की मालाएं धारण किये एक भव्य पत्रकार मिलता था। उसकी आँखों से लुटेरा प्यार झरता रहता था। कभी जलतेदीप जाता तो मुझे अवस्थी दिख जाते। मगर मेरा मन पास की पतली गली में घुसा रहता जहाँ माणक पत्रिका के कार्यालय का बोर्ड टँगा होता। माणक सच्चे अर्थों में ऐसी पत्रिका थी जो रेगिस्तान की दूर बसी ढाणियों में सहेजी, संभाली और प्रेमपूर्वक पढ़ी जाती थी। राजस्थान के लिए राजस्थान की ऐसी कोई पत्रिका होगी ऐसा मुझे नहीं लगता।
अयोध्या प्रसाद गौड़ का नाम मेरे लिए इन्हीं पुराने आकर्षणों और सम्मोहनों के कारण सदा परिचित रहा। उनसे एक दो बार ही मिलना हुआ। अभी जोधपुर में क से कहानी शिविर आयोजित हुआ था। उसमें दूसरी बार उनको बोलते हुए सुना। विषय का गम्भीरता से अध्ययन करना और उस पर सलीके से अपनी बात को रोचक ढंग से कहना अयोध्या प्रसाद गौड़ की ख़ूबी है।
चौथा धँधा के ऑनलाइन होने का मालूम हुआ तो मैंने ऑर्डर कर दिया। मुझे इसके टाइटल के साथ लिखी पंच लाइन से लगा कि जोधपुर के अनेक पत्रकारों को मैं इस किताब में कहीं पा सकूँगा। "पत्रकारिता के क़िस्से" से ये अनुमान लगाना गलत न था। लेकिन मुझे इसमें कहानियां मिली। सच्ची कहानियां।
जैसा कि अयोध्या प्रसाद कहते हैं कि इस किताब का उद्देश्य पत्रकारिता को बदनाम करना नहीं है ठीक वैसा ही है कि ये कहानियां पत्रकारिता को बदनाम करने की जगह पहचानपत्र की लाल पट्टी को उधेड़कर अंदर के संसार को सामने रखती हैं। मैं अख़बार के पाठक के तौर पर कहूँ तो कहना होगा कि ये किताब बदनाम नहीं करती पत्रकारिता को शीर्षक कहानी के माध्यम से नंगा करती है।
पोलीपैक किताब की ये तस्वीर आकाशवाणी के स्टूडियो में ली थी। प्यारे ए पी आपकोबधाई। मज़ा आया पढ़कर।