वो जो बात उसने कही थी। उसे वह ही जानता था। दिल के पास कोई ख़बर न थी, जो उसकी बात को झूठ कह सके। न दिल वहां गया, न दिल ने उनको देखा, न दिल ने जाना कि वहां क्या हो रहा था। इस सब के बाद भी दिल ने उसकी कही बात पर ऐतबार न किया। किसलिए? नहीं पता। उसने बार-बार समझाया। उसने रूठकर जाने की बातें कही और बार-बार लौटकर आया। उसने ऐतबार न होने को शक़्क़ी होना कहा। उसकी बातों एक सी-सा झूला हो गई। एक बात वह कहता कि तुम्हारे साथ होना मेरी भूल थी। दूजी बात कहता कि प्लीज़ मान जाइए। इन दो बातों के बीच अपमान, बेरुख़ी, चाहना और प्रेम की छोटी-छोटी असंख्य बातें बस गई थी। एक के बाद एक उलट बात पड़ती। दिल पत्थर बना खड़ा रहा। बरसों बाद सब सच साफ सामने खड़ा था। कि उसकी बातें ऐतबार के लायक न थी। उसने जो कहा वह सब आधा-अधूरा था। उसने जो जीया वह छुपा रखा था। मैंने एक लंबी सांस ली और देर तक सोचा। बहुत देर तक। आख़िर दिल को बिना जाने कैसे मालूम हुआ। दिल को सच कौन बता जाता है। कौन? इसके बाद मैं दिल पर भरोसा करने लगा। कुछ तीन चार बरस पहले दिल फिर से अड़ गया। मैंने चाहा कि उसका ऐतबार करूँ। माम...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]