पढ़ते-पढ़ते - मनोज पटेल

पुस्तक मेला से एक किताब खरीदी।

एक ही किताब की चौदह प्रतियां। पांच प्रतियां पुस्तक मेला में बेहद प्यारे दोस्तों को उपहार में दी। तीन प्रतियां एक कैरी बैग में स्टॉल पर टेबल पर रखी थी। एक फ़ोटो खिंचवा कर वापस मुड़ा तब तक कोई इसी प्रतीक्षा में था कि उठा ले। उसने उठा ली। दुःख भरे दिल को तसल्ली दी कि अच्छा है कोई एक बेहतरीन किताब पढ़ेगा और मित्रो को बांटेगा। वह एक अच्छा चोर था कि अच्छी किताब चुरा सका।

छः प्रतियां अपने उन दोस्तों के लिए लाया जो मेला नहीं जा सके थे। अब मेरे पास दो प्रतियां बचीं हैं। इनमें से एक सहकर्मी के लिए है दूजी आभा के लिए।


हिंदी बुक सेंटर के स्टॉल पर मैं बार-बार गया। एक साथ इतनी प्रतियां लेना और उनको अपने पास रखना सम्भव न था। हिंदी बुक सेंटर वालों को बड़ा शुकराना अदा किया। वे भी अचरज में थे कि इस तरह कोई किसी किताब को चाहता है? उसका इंतज़ार करता है?

मनोज पटेल अब हमारे बीच नहीं है। एक तमन्ना थी कि किसी रोज़ उनके साथ बहुत देर तक बैठा जाए। उनसे बात की जाए कि आपके क्लोन कैसे बनाये जा सकते हैं। किन्तु इस दुनिया में कुछ भी एक सा नहीं बनता। सब अपने आप में अनूठे हैं।

हिंदी बुक सेंटर के स्टॉल के आगे माइक लिए एक लडक़ी खड़ी थी। उनके साथ कैमरामैन भी था। उन्होंने पूछा- "आप लेखक हैं?" मैंने कहा- "मैं लेखक नहीं हूँ मगर इस किताब के बारे में ज़रूर बताना चाहूंगा"

इस इंटरव्यू में पहले मैंने बताया कि ये किताब क्या है। इसकी सामग्री किस कारण महत्वपूर्ण है। इतना बताने के बाद मुझसे पूछा- "ये किताब किस उम्र के लोगों के लिए अधिक उपयोगी है?" मैंने कहा- "बोलना सीखने से लेकर उम्र के अंतिम पड़ाव पर बोलना भूलने वाले सब कविता प्रेमियों के लिए है।"

इस पुस्तक मेला में मैंने लगभग रोज़ इंटरव्यू दिए। अपने काम के बारे में, कहानियों के बारे में बातें की लेकिन जो सुख पढ़ते-पढ़ते के बारे में बोलने से हुआ वह परमानन्द था।
Manoj Patel बहुत सारा प्यार। शुकराना। 

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