बहुत ख़ुश होने पर

एक मैं हॉल में छूट गया था, एक मैं बैंच पर बैठा हुआ था। अंदर छूट गया मैं इंतज़ार से भरा था। निरन्तर किसी को देख लेने के इंतज़ार से भरा। बैंच पर बैठा हुआ मैं उस अंदर छूट गए मैं को देख रहा था। मैं उसके कंधे पर थपकी देना चाहता था। उसके मुड़ते ही गले भी लगाने का सोच रहा था। उससे कहना चाहता था- "चाहना के पास झीने पर्दे भी होते हैं। वे असलियत को ढक देते हैं"

अचानक मुझे लगा कि चेहरों की एक लहर आई। इस लहर में भीतर छूट गया मैं घबरा गया है। वह जिसे देख लेना चाहता है, वह खो गया है।

इस हाल में खड़ा वह देखता कहीं है, सोचता कुछ है और फ़ोटो किसी के साथ खिंचवाता जाता है। बैंच पर बैठे हुआ मैं परेशान होने लगा। मैंने अपने जैकेट की जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला।


मैं सिगरेट सुलगा रहा था तभी मुझे याद आया कि कल किसी से कहा था- "बहुत ख़ुश होने पर सिगरेट की तलब होने लगती है"

सिगरेट सुलगाते ही मैंने देखा कि हॉल के भीतर खड़ा मैं उसी के इंतज़ार में है। जिससे मैंने सिगरेट और ख़ुशी की बात कही थी।

इससे पहले कि हॉल के भीतर खड़ा मैं अपने इंतज़ार की अंगुलियां छूते हुए गलियारों में गुम हो जाये, उससे पहले मैं वहां पहुंच जाना चाहता था। मैं उसके इंतज़ार को अपनी बाहों में भर लेता।

मैं जानता हूँ कि भीतर वाला मैं बहुत भावुक है। मैंने उसे प्रेम में रोते हुए देखा है। उसे हताशा और अवसाद की झूलती ढीली रस्सी पर चलते पाया है। वह ठीक होने के तीन बरस बाद अब फिर से प्रेम करना चाहता है। वह प्रेम की कलाई पकड़ कर कहीं खो जाएगा।

इसलिए मैं बैंच से उठकर तेज़ कदम हॉल की ओर चल पड़ा।