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दुःख की पावती

किस रोज़ पहली बार दुःख हुआ था, ये याद नहीं है। उसके बाद के दुःखों का क्या हुआ? ये भी ठीक-ठीक नहीं बता सकता। उन तमाम दुखों के बारे में बहुत छोटी लेकिन एक जैसी बातें याद हैं। दुःख एक विस्मय साथ लेकर आता था। असल में पहले विस्मय ही आता, उसके पीछे छाया की तरह दुःख चल रहा होता। विस्मय मेरे दिल को बींध देता। जैसे पारे से भरी सुई चुभो दी गई है। दिल तेज़ी से भारी होने लगता और मैं डरने लगता कि दिल धड़कना बन्द कर देगा। इसके अलावा मेरे हाथ-पैर शिथिल होने लगते। दिमाग में ठंडा लावा भरने लगता। दिमाग एक बोझ की तरह हो जाता। ये सब अनुभूतियां मिलकर समग्र रूप से एक दुःख के आने की पावती बनती।

दुःखों के आने के प्रति मैं स्वयं को कभी शिक्षित न कर पाया। मेरे मन में उनके आगमन के लिए कोई स्थान न था। मैंने हर एक के लिए ऐसे जीवन की कामना या कल्पना की थी, जिसमें दुखों के लिए कोई स्थान न था। मैं रोज़ देखता था कि दुःख आस-पास तेज़ी से घट रहे हैं लेकिन उनके लिए स्थान कभी न बना सका। दुःख जितनी द्रुत गति से आया, उसके उलट जाने में उतना ही शिथिल रहा। कभी-कभी दुःख महीनों साथ बना रहा। इतने लंबे साथ से वह मेरा अपना हिस्सा हो गया।

मुझे किसी दुःख से उतना कष्ट नहीं होता, जितना मैंने उठाया। असल में किसी दुःख पर रो सकने का ढब मैं सीख नहीं पाया। बहुत बार तो जब दुःख को भूल चुका होता था तब अचानक क्षणभर की दुःख की याद में आंसू बहने लगते। मैं चुप बैठा रहता और आँखों से झरते आंसू मेरे गालों, गरदन और टी को भिगोते जाते। उन भीगी आंखों से मैं सोचता कि काश रुलाई फूट पड़े। मैं एक ऊंची आवाज़ में चीख़ता हुआ रो सकूँ। लेकिन मैं चुपचाप आंसुओं को बहते हुए देखता था।

अब भी कुछ दुःख हैं जिनके लिए वैसे ही रोना चाहता हूँ। चीख़ता, आंसुओं से भीगा और पछाड़ें खाता हुआ। लेकिन दुःखों की सबसे अच्छी बात ये है कि वे तरतीब से बहुत समय तक याद नहीं रखे जा सकते। वे अचानक भूल में कहीं गुम हो जाते हैं। वे बार-बार आते हैं फिर भी जीवन में कोई स्थायी स्थान नहीं बनाते।

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