मैं बैठ जाता तो
मेरे भीतर के आदमी को बेचैनी होने लगती।
इसलिए मैं उठ जाता।
बहुत दूर साथ साथ चलने के बाद
मैं थकने लगता लेकिन भीतर का व्यक्ति
मेरी थकान से अचरज में पड़ जाता।
आखिरकार दिवस की समाप्ति पर
आखिरकार दिवस की समाप्ति पर
मैं देखता कि इस तरह बेचैन होकर चलने से क्या मिला?
तब मेरे भीतर का व्यक्ति सर झुकाकर बैठ जाता।
वह कनखियों से कभी-कभी मुझे इस तरह देखता
जैसे कह रहा हो, उस पल वहीं रुक जाते तो अच्छा था।
हम दोनों उस पल तक लौट नहीं पाते।
हम दोनों उस पल तक लौट नहीं पाते।
कोई भी नहीं लौट सकता। वह केवल एक स्मृति या छवि में देखा जा सकने वाला पल रहा जाता है।