नींद जितनी भारी होती जाती, सुबह उतनी ही दूर रह जाती। कभी-कभी हमें पता होता है कि आज नींद नहीं आएगी। हम अपने आपको सुलाने में पहले नाकाम मान चुके होते हैं। ऐसी रातों में अक्सर मैं कुछ काम करने लगता हूँ। जैसे कि छत पर चले जाना। मैं अपने आपको वहीं चारपाई पर छोड़ देता हूँ। जैसे कोई माँ अपने नन्हे बच्चे को बन्द आराम कुर्सी में बिठा कर काम करने लगती है।
मैं भी एक माँ की तरह अपने आप को वहीं छोड़ छत पर थोड़ी दूर टहलता हूँ। जब मैं टहलने निकलता हूँ तो चारपाई पर पड़े मैं को आराम आने लगता है। जैसे मेरे होने से उसे कोई उलझन थी। जैसे वह बन्धन में था। चारपाई पर पड़ा हुआ मैं अब तारे देखने लगता हूँ। कभी-कभी नज़र बहुत दूर तक नहीं जाती तब मैं लैम्पपोस्ट देखने लगता हूँ। अक्सर तो ऐसा होता है कि मैं लैम्पपोस्ट देख रहा होता हूँ मगर असल में देख नहीं रहा होता हूँ।
अचानक चहलकदमी करता हुआ मैं अपने पास वापस आता हूँ तो लगता है कि मेरे होने से मुझे इतनी उलझन तो न थी। मैं अपने लौट आने को भला सा महसूस करता हूँ। इसके बाद मुझे ख़याल आता है कि फिर वो क्या बात थी? मैं क्यों परेशान और उलझन से घिरा था।
नींद उड़ी ही रहती है। मैं उसके आने की आशा भी नहीं करता। मैं अपनी डायरी निकालता हूँ। देखता हूँ कि छत पर रखे कूलर पर बेटी ने पेंसिल रखी थी। वह उसे यहीं भूल गयी है। उसे उठाकर देखता हूँ। क्या इतनी काली रात उकेरने के लिए पूरा पन्ना काला करना पड़ेगा?
नहीं।
हम रंगों को उलट भी तो सकते हैं। रोशनी काली हो सकती है। काले रंग का लैम्पपोस्ट सफेद। अचानक मैं मुस्कुराता हूँ।