कभी बरसों बाद उसी सूने रास्ते पर वो फिर दिख जाएगा, ऐसा कौन सोचता है।
मैं अक्सर टूटी हुई चीज़ों को सावधानी से छूता हूँ। दुख जब किसी को तोड़ते हैं, तब वे तेज़ किनारे छोड़कर जाते हैं। दुख नहीं चाहते कि फिर से उनको कोई गले लगाकर बिसरा दे और हमको फिर से तोड़ने आना पड़े।
वो बरस कौनसा था, दिल से ये भी मिट गया था। कुछ याद नहीं रहा। रूठकर बिछड़ने की जगह लड़ कर पीड़ा से भरे बिछड़ना हुआ था।
परसों अचानक एक तस्वीर दिखी। हम चारों एक ही बिस्तर पर सटे पड़े थे। गद्दे पर रखे हुए भरे भरे शराब के प्यालों से बेफिक्र थे। कि औचक कहा "इतनी जल्दी और इतना सारा क्यों पी रहे हो?"
प्याला हाथ में लिए एक से दूजे कमरे फिर बालकनी और फिर घर के आगे सीढ़ियों पर बैठ गए थे। "ऐसे ही अच्छा लगता है। खासकर तुम आस पास रहो तो एक बार में ही ड्रिंक खत्म कर के तुमको देखता रहूं।
सब खत्म हो जाता है। मैं जब भी ये कहता तुमको बहुत शिकायत होती थी। भरोसा नहीं होता था। तब तुमको पता नहीं था। बाद में पता चला कि मैं डायरी में ककहरे भी सहेज कर रखता हूं।
पुरानी डायरियां पढ़कर ही मुझे विश्वास हुआ कि अब तक सबकुछ नष्ट ही तो हुआ है। सब खत्म ही होता है। लेकिन उस डायरी को देखते हुए तुमको देखना सुख था। मेरी डायरी के उजले डिजिटल पन्नों को पढ़ते हुए तुम्हारा चेहरा पीला था। बेहद पीला और भय से भरा हुआ।
क्या था उसमें? तुम्हारी लिखी बातें, तस्वीरें और आवाज़ सलीके से बचाई हुई थी। मेरे लिए ये बेशकीमती था मगर तुम्हारे लिए एक आफ़त थी। कि तुम अपने जिए हुए की कोई छाया नहीं चाहती थी। तुम अगले क्षण भी नई नकोर पेश होना चाहती थी। एक नए सम्बंध में, एक नई दुनिया में।
रात के बारह बजे मुझे और कौन फ़ोन कर सकता है। कोई शराबी दोस्त। मैं उनके फ़ोन उठाता हूं। मैं हाँ हूँ करते सुनते हुए बार पूछता हूँ कि तुमने पी रखी है न?
लेकिन सब एक सा नहीं होता। तुमने कहा "अभी नौ बजे हैं। वो आया नहीं है और मैंने पी नहीं है"
मैंने पुराने बी बॉक्स में लॉगिन किया और तुम्हारा एक ड्राफ्ट खोजा। जिसके बारे में तुमने कहा था। "ये मैंने आपके लिए लिखा है। आपको भेजने के सिवा इस दुनिया में किसी काम का नहीं है।"
कभी कोई शाम बेहद उदास होती है। हम जान नहीं पाते कि ठीक कारण क्या है? कुछ समझ नहीं आता। ऐसे ही कभी कोई सुबह सुंदर होती है। जब मैं देखता हूँ कि रात तीन बजे एक कॉल छूट गया था।
मैं मुस्कुराता हूं कि तुमने बारह बजे तक शराब पी थी। पीकर मुझे याद भी किया।
कोई किसी को कितना जान सकता है? अंशभर भी नहीं जान सकता। ज़हर का हर हिस्सा एक सा होता है लेकिन इंसान भीतर बाहर से इतना अलग होता है कि उसकी विषाक्तता तो चखकर भी हम नहीं समझ सकते। जैसे दंश के बाद मुंदती हुई आंखों से कोई प्राणी आकाश देखता है, हवा सूंघता है या मर जाने के सच्चे क्षण को महसूस करता है। उसी समय डसने वाले का चेहरा कोमल और प्रेमिल जान पड़ता है। वह चुप और असहाय बैठा दिखाई देता है।
जैसे उस रोज पेंटिंग बोर्ड पर रखी अधूरी पेंटिंग के सामने तुम बैठी थी।
वैसे वही आख़िरी लम्हा था। उसके बरसों बाद अधबुझी आंखों के पास से अनगिनत लोग गुज़रे। उनकी कोई याद नहीं। अब भी कुछ एक लोग बार बार गुज़रते। उनको कुछ मालूम नहीं होता कि वे एक विषदंत के दंश से पीड़ित अर्धचेतन व्यक्ति के पास होते हैं।
ऐसा व्यक्ति जो तुम्हारा कुछ नहीं कर सकता कि खुद अपने ही बस में नहीं है। उसकी चेतना और जिजीविषा कुछ एक गहरे चुंबनों और सहवास में खत्म हो चुके हैं।