सूने स्टेशन पर रेलकोच

हम दो तरह के लोगों एक बीच जीते हैं। 

एक वे लोग, जो बार बार टकराते हैं। अनियतकाल के लिए पटरी पर दौड़े जा रहे डिब्बे के सहयात्रियों की तरह। एक दूजे से मिलते, दिखते और फिर अपने कूपों में कहीं खो जाते हुए। उदासीनता और अप्रेम से भरे हुए। किसी मजबूरी से बंधे, बाहर न भाग पाने की हताशा में उपलब्ध लोगों के साथ मुस्कुराते हुए। 

दूसरी तरह के वे लोग होते हैं। जो चुपचाप आए थे और बिना कोई आहट किए चले गए। उनकी याद से अधिक उनकी उपस्थिति महसूस होती रहती है। रोज़ के जीवन में कभी कभार जैसे किसी सूने रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकती है और हम कुछ क्षणों के लिए डिब्बे से उतर जाते हैं। ठीक ऐसे ही उन लोगों के पास पहुंचते हैं। उनकी लिखी चिट्ठियां खोजते हैं। पोस्टकार्ड देखते हैं। उनके लिखे ब्लॉग, कविताएं और कहानियां पढ़ते हैं। उनकी किसी तस्वीर में उनका अकेलापन पढ़ते हैं और फिर चाहते हैं कि वे खुश रहें। 

जीवन की रेल अचानक फिर से चल पड़ती है। सब स्टेशनों से बाहर जाने के रास्ते बंद हैं। 

कभी कभी लगता है कि असल में चौकीदार हमारे दिमाग पर ताला लगाकर चले गए हैं। और हम किसी भी स्टेशन पर उतरते ही रेल छूट जाने के डर से दौड़कर उसी डिब्बे की हत्थी पकड़ लेते हैं।

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