ठीक समानांतर

समंदर के किनारे बैठकर कवि, तुम बहुत अधिक इंतज़ार पी चुके हो। तुम हाई हो।


नींद पर
एक टहोका सा लगता है
शीतनिद्रा से जागता है दिल।
जैसे तनहाई की गरमियाँ उतरते ही
जाग उठती हैं छिपकलियाँ।
तुम्हारी याद
रेंगने लगती है
इंतज़ार के हर कोने तक।
~लक्ष्मी घोष

ये कविता कुछ बरस पहले पढ़ी थी। रुककर दोबारा पढ़ी। मैं जब अपने पास होता हूँ, लैपटॉप या मोबाइल में ब्राउज़र खोलकर कविताएँ खोजने लगता हूँ। कविता कुछ भी हो सकती है। शिशु की लोरी से लेकर व्यवस्था पर छोड़े गए तीर तक।

इसी प्रकार कविता एक नशा भी है। जीवन अनुभूतियों को जब थोड़ा हाई होने की चाह होती है, कविता असरकारी जुगाड़ है। इस तलब में कोई मारा-मारा फिर सकता है। वह सर्च इंजन पर पोएट्री कीवर्ड से निशाने साधता रहता है।

जैसे चीनी कवि पाई चुई (बे जुई) की कविताओं ने मुझे बड़ा मोहा था। मैंने उनकी कविताएं पढ़ीं। कभी बरसों भूल गया तो बाद बरसों के महीनों पढ़ते रहे। इस प्रकार से अपने मन की कविता ढूँढने के अतिरिक्त, कोई मित्र हमारा कवि अथवा कविता से परिचय करवाता है। जब हम उसके प्रेम में खो जाते हैं, तब स्वयं कविता की टोह में जागते हैं। चीनी कवि से मेरा परिचय इकराम ने करवाया था। उन दिनों मैं कॉलेज में था और हिन्दी साहित्य पढ़ रहा था।

पाई चुई की एक कविता है।

जैसे फूल खिलता है
और कुम्हला जाता है।
जैसे आधी रात को आया कुहासा
भोर की पहली किरण के साथ विदा हो जाता है।
ठीक ऐसे
जीवन आता है
वसंत के किसी स्वप्न की तरह
और सुबह के बादल की तरह खो जाता है।
उसे फिर कहीं नहीं पाया जा सकता।

समय बदला तो साधन भी बदले। इंटरनेट ने विश्व कविता को सुलभ करवा दिया। ढूँढने का काम आसान हुआ। एक संध्या मैं अमेरिकी आधुनिक कविता के पन्ने देख रहा था। मुझे एक ब्लॉग मिला। जिसने वह ब्लॉग आरम्भ किया था, उसने गहरी कविताएँ लिखीं। दो बरस तक लिखने के बाद बंद कर दिया था। इतनी गहरी कविताएँ थी कि प्रेमी या प्रेयसी ने अगर उनको पढ़ा होगा तो वह समस्त असहमतियों के बाद भी लौट आया होगा।

ऐसे ही कुछ बरस पहले लक्ष्मी घोष की कोई एक कविता दिखी। प्रेम की अनुभूति को लिखने के अतिरिक्त कोई प्रयोजन न रहा होगा। जिनको कुछ साधना होता है, वे पत्र पत्रिकाओं, ब्लॉग और ईमेग्ज़ींस पर कविताएँ भेजते रहते हैं। किंतु जिसे एक क्षण में एक बीती स्मृति को अथवा किसी गहरी आह को लिखना होता है। वे लिखते हैं और जीवन जीने के लिए आगे बढ़ जाते हैं।

वर्षों पश्चात कविता संग्रह ठीक समानांतर, उतनी ही चुप्पी के साथ आया। जैसे कविताएँ आई थीं। इन कविताओं में ऐसे तत्व हैं, बिम्ब हैं, जो स्मृति के अनगढ़ वीराने में ले जाते हैं। जैसे प्रकाश की अनुपस्थिति वाले स्थान पर जाने के कुछ देर बाद हम अनुभूत करते हैं कि ये कोई अंधकार भरी जगह नहीं है। यहाँ बहुत कुछ है। कुछ समय पश्चात आँखें बहुत स्पष्ट बहुत सारा देखने लगीं हैं।

हवा के साथ एक सूखा पत्ता काँपता है,
मैं तुम्हारी याद में सिहरती हूँ।

कितने सूखे पत्ते हवा के संग उड़ गए होंगे। कितनी बार कवि मन ने आह भरी होगी और किसी से न कहा होगा कि इस क्षण मुझे कैसा लग रहा है। किसी संध्या काग़ज़ पर लिख दिया होगा कि स्मृति की आहटों ने मेरे भीतर एक सिहरन भर दी है। कैसी सिहरन? जैसे कोई सूखा पत्ता हवा के साथ काँपता है।

कविता का हाथ जब प्रकृति के हाथ से छूट जाता है तब कवि अत्यंत सुभग हृदय लिए, नयनों और लता सरीखे लंबे केशों में गुम कविता उकेरने लगता है। ऐसी कविता मन में एक गहरी टीस उकेर ही देती होगी। किंतु इनसे बचकर मेरा मन आगे बढ़ जाता रहा है। मन फाँदता हुआ इस तरह बचकर निकलता है कि ऐसी कविता का कोई छींटा न पड़ जाए।

ये मेरे मन की थकन है। ये प्रेम कविता से बचकर निकलना नहीं होता वरन ये देह के भूगोल के आख्यानों और उसकी स्मृति से बचकर निकलना होता है। प्रिय की सुंदरता का बखान और लोभ कोई बुरी बात नहीं है। वस्तुतः इसका केंद्र में आ जाना ठीक नहीं लगता। ये एक भ्रम रचता है कि क्या प्रेम में केवल देह ही दिखाई देती है। क्या प्रतीक्षा में केवल इतना भर स्मृत होता है कि वह कैसा दिखता था? कोई आशा है तो वह अवश्य ही उस संसार से दो चार होता होगा जिसमें रह रहा है।

मैंने कभी पढ़ा कि फ़ायर फ्लाइज़ रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता में जगमगाती हैं। माने कविता के भीतर दिप-दिप प्रकाशित जुगनू उड़ रहे हैं। मैं कविता को भूल गया। मैं जुगनुओं के जंगल में प्रवेश कर गया। कविता इसी निष्क्रमण का द्वार होनी चाहिए।

वर्ड्सवर्थ की कविताओं में तितलियाँ और नरगिस के पुष्प वह प्लेटफार्म है, जहाँ पाठक की रेल रुक जाती है। वह ठहर जाता है ताकि उसकी आँखें देर तक तितलियों का पीछा कर सके। आयरिश कवि यीट्स की कविताओं को पढ़ते हुए पाएँ कि नाव झील के बीच इसलिए उदासीन हो गई है कि झीलों के जंगली हंस लुप्त हो गए हैं।

कविता मेरे लिए कभी एक कल्पना का संसार भी है। उसमें ऐसी वास्तविक घटनाएँ घटित होती हैं कि मन किसी शांत अघोरी की भाँति कविता संसार को वास्तव में अपने निकट उतार लाता है। जैसे चीन का कोई जंगल कविता पढ़ते हुए आपको घेर चुका है। वांग वेई कह रहे हैं कि जंगली हिरण कहीं छुप गए हैं। कभी आप पाएँ कि मेंढक, झींगुर और चेरी के फूल जापानी कवि मात्सुओ बाशो की कविताओं को फाँद कर अथवा भेदकर बाहर चुके हैं। हम उनकी उछल-कूद और वृंदगान से घिरे हुए हैं।

लक्ष्मी घोष की कविताओं में छिपकलियाँ, जंगल की गंध, शाम का धुंधलका, झींगुर, नदी खाली कनस्तर, तितलियाँ, वनगंध, सूने गलियारे, सफ़ेद लिली के फूल,शराब, भाप, पतझड़ और भी क्या कुछ एकाकी किंतु समवेत स्वर का अभिन्न अंग हैं।

इन कविताओं में कितना कुछ है,जिसके साथ प्रतिदिन जीते हुए, देखकर भी अनुभूत नहीं कर पाते। ये कविताएं इस स्मृति को उकेरती है। मैं स्वयं किसी ख़ाली पड़े उदास वितान पर स्वयं को अकेला पाता हूँ और देखता हूँ कि एकाकीपन बढ़ता जा रहा है। ऐसे में कोई मृदुल स्पर्श मुझे जगा सके तो कितना सुंदर हो।

प्रकृति में जन्मा प्रेम, प्रकृति के बिना अधूरा है। समंदर किनारे का कवि सीपियों, झींगों और नमकीन हवाओं से बचकर कैसे रह सकता है। पहाड़ का कवि काफ़ल के स्वाद से कैसे बच सकता है। मैदानी कविता में सरपत घास की तीक्ष्ण खरोंचें कैसे छूट सकती हैं। रेगिस्तान का कवि आक, कैर, फोग और कसुम्बल रंग को कैसे भूल सकता है?

इस बरस का आरम्भ इस सुंदर कविता संग्रह से हुआ था। ये सुंदर इसलिए है कि संसार भर की कविताएँ ढूँढकर पढ़ने वाले को वैसी ही कुछ कविताएँ मूल रूप से हिंदी में कही हुई मिल जाएँ। मैं अपने प्रिय कवियों की बहुत सारी कविताएं इस बात में जोड़ लेना चाहता हूँ किन्तु ये संभव नहीं है। एक छोटी पोस्ट पहले ही बहुत लंबी हो चुकी है।

मैं खोई हुई हूँ
मगर अंगुलियाँ सलीके से काट रही हैं
पनीर के टुकड़े।
जैसे मैं काटती हूँ
बेहिसाब तनहाई।

वे कवि और कहानीकार जो अपनी रचनाएँ किसी संकोच के साथ लेकर उपस्थित होते हैं, सोचिए उनका मन कैसा होगा। बस कभी-कभी सोचिए। कि कविता एक जादू भी होती है, जादू के संसार में वास्तविक ठोकरें भी होती हैं। आप एक हल्की टीस के साथ जादू से जागते हैं और अपने काम पर निकल पड़ते हैं।

[वेरा प्रकाशन - 96804 33181]



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