एक आत्ममुग्ध बयान और कुछ भड़वे

सेल फोन पर अभी एक मित्र का संदेश आया है. अंग्रेजी में लिखे गए इस संदेश का भावार्थ कुछ इस तरह से है. अल्कोहल का उपयोग कम करने का टिप. अगर आप कुंवारे हैं तो तो सिर्फ उन दिनों पियें जब आप उदास हों और अगर आप शादीशुदा हैं तो सिर्फ उन दिनों पियें जब आप खुश हों. मैं पढ़ता हूँ और मुस्कुराता हूँ. इसमें शादीशुदा जीवन पर तंज है कि वह अक्सर खुशियाँ कम ही लाता है. क्षण भर बाद मैंने उन दिनों के बारे में सोचा जब मैं शादीशुदा नहीं था और शराब से परिचित था.

मेरे परिवार के सभी आनंद उत्सवों में शराब का पिया जाना खास बात रही है. मैं देखता था कि मेरे परिवार के लोग मिल बैठ कर शराब पीते थे. उनके चेहरों पर कोई अवसाद या व्यग्रता नहीं होती थी. घर की औरतें इस काम के प्रति उदासीन ही बनी रहती या फिर इस दौरान वे योजना बना रही होती कि पार्टी के बाद के रात्रिकालीन एकांत में अपने पति को किस तरह से हतोत्साहित करना है. ये कोशिशें अक्सर कामयाब नहीं हो पाती थी क्योंकि दस बीस लोगों में से कोई एक लड़खड़ा जाता या फिर शराब के नशे में नाचने लगता या फिर अपनी माँ और बुआ को दुनिया की सबसे अच्छी औरत बताने के प्रयासों में इस तरह की हरकतें करता कि सब की आँखें शरारत से भर जाती. अब बहके हुए की पत्नी उसके बचाव में उतर आती तो बाकी सब स्त्रियाँ भी अपने सिरमोर को उनसे अच्छा साबित करने लगती. हर बार पार्टियाँ होती रहती और स्त्रियों की सभी योजनायें आपसी फूट से नाकाम भी.

मेरे चचेरे - ममरे भाई और मेरे ससुराल वाले भी इन पार्टियों में मेरे ताऊ - चाचा के साथ बैठते रहे. मैं कभी नहीं बैठा हालाँकि उस दिन मैं भी पीता था. मुझे कई बार बुलाया गया मगर मैं उनकी सेवा में खड़ा रहता और रसोई में बन रहे स्नेक्स लाना, आईस क्यूब्स रखने वाले डिब्बों को भरना और खाली बोतलों को समेटना जैसे काम करता था. मेरे पिताजी को पता था कि मैं पीता हूँ मगर उस दिन मेरे साथ न बैठने पर वे कैसा फील करते होंगे इसको लेकर संशय है फिर भी मैंने हर बार महसूस किया था कि वे मुझे गले लगाना चाहते रहें हैं. पार्टी के विसर्जित होने के समय सब के मन भीतर तक भीगे हुए होते थे. वे तरह तरह का प्यार जताते हुए सोने चले जाते. मैं जिससे बेहद प्यार करता था वे एक न जगाने वाली नींद सो गए हैं. जब भी पीता हूँ उनके लिए दो बूँद छलका ही दिया करता हूँ ताकि मेरी आँखों से उनकी याद शराब बन कर न छलके.

मैंने पहली बार साल चौरासी में शराब पी थी. मेरे से छोटे चचेरे भाई ने पिलाई थी. मेकडोवेल्स की तैयार की हुई रम थी. जाने क्यों अब भी मैं रम को निचले पायदान पर रखता हूँ. कुछ साल कभी कभी पी और साल नब्बे से मैं नियमित पीने लग गया. मेरे पास कोई ग़म नहीं था जिसे गलत करना हो. आमदनी से बड़े ख्वाब नहीं थे. जो मेरी दोस्त थी उनसे सुंदर इस दुनिया में लड़कियाँ न थी. जो मेरे भाई थे उनसे बढ़ कर सहोदर न थे. जो मुझे नौकरी मिली उसमे कुछ पढ़े लिखे लोगों को सुनना और मन हो तो अमल में लाना ही एक मात्र काम था. फिर भी जाने क्यों बिना किसी ग़म के पीता ही रहा हूँ. वैवाहिक जीवन मेरा बहुत मधुर है इसलिए नहीं कि मैं अच्छा हूँ वरन इसलिए कि वह बहुत ही सुंदर और मेरे प्रति 'दयालु' है. उसने कई बार इस बदबूदार पेय को छोड़ देने की गुजारिश भी की और धमकाया भी. लेकिन मैं पीता रहा और मेरी इस धारणा को बल मिलता रहा कि दुनिया को स्त्रियाँ ही बचाती रही है.

शराब पीते ही मेरे अंदर एक नकली किस्म का साहस अंकुरित होने लगता है. मेरी मांसपेशियों और मस्तिष्क के तनाव भले ही दूर न होतें हों मगर मैं उन पर केन्द्रित हुए ध्यान से मुक्त होता महसूस करता हूँ. मैं अपने पास संगीत को बजते हुए सुनना चाहने लगता हूँ. मित्रों के प्रति उनकी सदाशयता के लिए आभार से भरने लगता हूँ. बड़ी मौलिक बातें करता हूँ, ऐसी बातें जिन्हें आप होश में इसलिए नहीं कहते कि आपको अपने प्रेम का क्रेडिट कार्ड आल रेड्डी फ्रीज हुआ दीखाई देता है मगर पीते ही मैं कह पाता हूँ कि 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ' उस समय प्रेम की उत्त्पत्ति का स्रोत महत्वपूर्ण नहीं होता कि ये वासना से है या चाहना से. बस ऐसे ही कई साल बीत गए हैं.

शराब पीने से बड़े कई अफ़सोस है जैसे परसों आईफा एवार्ड्स में तीन मसखरे. जिनमे दो थे बोमन ईरानी और रितेश देशमुख, स्त्री को पहचान नहीं पाया. एक हास्य भरा नाट्य प्रस्तुत कर रहे थे. इसमें थ्री ईडियट्स के जन्म और उससे हुए आर्थिक लाभ को विषय बनाया गया था. स्त्री स्ट्रेचर पर लेटी है. वह प्रसव पीड़ा में है. उसके ऊपर एक सफ़ेद चादर बीछी है. बोमन और रितेश पेन्स आने पर उस चादर में अपना सर डालते हैं और एक बच्चे को बाहर खींच लाते हैं. यही क्रम तीन बार दोहराया जाता है. भारतीय सिनेमा के शीर्षस्थ लोग, एक नैसर्गिक क्रिया प्रसव को भोंडे प्रदर्शन में बदल कर प्रस्तुत किये जाने पर खिलखिलाते हैं और तालियाँ बजाते हैं. मेरा दिमाग कहता है कि ये हमारे विकास से उपजी रूढी रहित सोच से संभव हुआ है कि हम ऐसे विषयों पर इस तरह का सार्वजनिक नाट्य रूपांतरण प्रस्तुत कर के हंस सकते हैं. दिल कहता है कि तुम साले भड़वे ही हो...

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