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मुख़्तसर ये कहना...

एक हल्के से टी-शर्ट में छत पर बैठा हूँ. शाम से ही मौसम खुशनुमा होने लग गया था. बदन से गरम कपड़े उतारते ही लगा जैसे किसी रिश्ते के बोझ को ढ़ो रहा था और संबन्ध ख़त्म हुआ. इतना साहस तो सबमें होना चाहिए कि वह ज़िन्दगी की कॉपी में लिखे कुछ नामों पर इरेजर घुमा सके मगर ऐसा होता नहीं है. मैं तो नए मिले लोगों के भी बिछड़ जाने के विचार मात्र से ही सिहर जाया करता हूँ. रौशनी में कस्बा चमकता है. आसमान में धुले हुए तारे हर दिशा में और चाँद पश्चिम में लटका है. मैं मदभरी हवा में तुरंत अपना ग्लास उठा लेता हूँ और भूले हुए सदमें याद करता हूँ.

अपनी गणित लगता हूँ कि सदमे का कोई स्थायी शिल्प नहीं होता. वह हर घड़ी अपना रूप बदलता रहता है. अभी जो नाकाबिल-ए-बरदाश्त है, वह कल तक अपनी गहनता को बना कर नहीं रख सकता. ग़म और खुशियाँ समय के साथ छीजती जाती है. उन पर दुनियादारी के आवरण चढ़ते रहते हैं और इस तरह हम जीवन में निरंतर सीखते हैं. सब वाकयों को हमारे भीतर का एक खामोश टेलीप्रिंटर दर्ज करता जाता है. इस सब के बावजूद ज़िन्दगी सदा के लिए अप्रत्याशित ही है. वह नई राह नए समय में बखियागरी के नए हुनर दिखाती है और मुश्किलों से लड़ते हुए सीखे गए सबक अक्सर बौने जान पड़ते हैं.

कभी कोई भूला हुआ लम्हा यकसां सामने आ खड़ा होता है. मुस्कुराता हुआ भीगी आँखों से भरा और अब तक याद में बचाए हुए रखने का आभार लिए हुए. बेचैन शामों की उदास परछाइयाँ विस्मित होकर उलझ जाती है. सफ़र में आधी उम्र के बाद के बड़े अजीब सवाल यूं ही परेशान किये रखते हैं कि आगे रास्ता कहां जाता है. हम किसलिए हैं, इस सफ़र में क्या करना लाजिमी था और क्या नहीं ? क्या फर्क होता अगर बहुत सी किताबें याद की होती, किसी बड़े ओहदे पर होते, कहीं लाइम लाईट में गिने जाते या फिर कहीं उदास बैठे होते... कुछ भी तो शाश्वत कहां है.

इन सवालों की कुंजी कहीं नहीं है, बस कुण्डलियाँ है. सुबह से रात तक का कोई साफ़ हिसाब नहीं है. बेहूदा सोच के दायरे में घिरा हुआ ऑफिस के तनहा कमरों में म्यूजिक प्लेयर्स की उठती गिरती हुई लहरों के बीच या फिर शोर मचाते हुए मोहल्ले में अपनी छत पर टहलता रहता हूँ. एक थकावट है. एक अनमनापन है. सर्द दिनों में बीते हुए तमाम मौसमों में मिले और बिछड़े हुए दोस्तों के सीने की गर्मी को चुरा लाने के ख़याल हैं. ऐसे में किसी से मिलने का वादा, कोई हाल ही में सुनी गयी आवाज़ और छोटी-छोटी चुप्पियों वाली बातचीत दुनियावी बना जाती है. रूहानी होने की जगह दुनिया भौतिक जान पड़ने लगती है.

इन उदास औए गुंजलक दिनों में बिस्तर में पड़ा रहा हूँ. सोचता रहा कि मिलने का अनिवार्य हासिल बिछोह ही हैं. वस्ल की शाम के बाद फिर एक तरल उदासी को अपने भीतर समेट कर रखना होगा. वह पहले से सहेजे हुए तमाम उदास रंगों में घुल कर मन के आईने को नया लुक देगी. खुद से पूछता हूँ कि तुम खुश क्यों नहीं हो ? तुम क्यों हमेशा भागते रहते हो ? अजीब प्यास की गिरफ्त में क्यों हो ? आह सवालों ! मुझे छोड़ दो. मैं बिखर जाने के लिए बनी खुशबू का बचा हुआ हिस्सा हूँ.

* * *
हाँ मैं ख़यालों में उलझा हुआ हूँ. मुझे कहानी-कविताएं लिख कर सुकून नहीं मिल रहा है. मैं किसी हाथ को थामे हुए समन्दरों के किनारे देखना चाहता हूँ, पहाड़ों के दरख्तों की घनी छाँव में शानों को चूमना चाहता हूँ, फिलहाल नुसरत साहब और उनके साथियों की गाई मीठे दर्द से भरी कव्वाली को सुन रहा हूँ... सुकून है !

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