ये बेदखली का साल था. हर कोई अपनी ज़िन्दगी में छुअन के नर्म अहसासों को तकनीक से रिप्लेस करता रहा. सौन्दर्यबोध भी एप्लीकेशंस का मोहताज हो गया था. हमने अपनी पसंद के भविष्यवक्ता और प्रेरणादायी वक्तव्य पहुँचाने वाली सेवाएं चुन रखी थी. सुबहें अक्सर बासी और सड़े हुए समाचारों से होती रही. शाम का सुकून भोर के पहले पहर तक दम तोड़ने की आदत से घिरा रहा. कभी किसी हसीन से दो बातें हुई तो कुछ दिन धड़कने बढ़ी फिर बीते सालों की तरह ये साल भी बिना किसी डेट के समाप्त हो गया.
पिछले साल एक किताब कभी रजाई से झांकती तो कभी उत्तर दिशा में खुलने वाली खिड़की में बैठी रहा करती. कभी ऑफिस में लेपटोप केस से बाहर निकल आती फिर कभी शामों को शराब के प्याले के पास चिंतन की मुद्रा में बैठी रहती. मैं जहां जाता उसे हर कहीं पाता था. कुछ एक पन्नों की इस किताब के एक - एक पन्ने को पढने में मुझे समय लगता जाता. आखिर दोस्त अपने परिवारों में मसरूफ़ हुए, ब्लॉग और फेसबुक पर ख़त-ओ-किताबत कम हुई और मैंने उसे पढ़ लिया. इसे पढने में मुझे कोई आठ - नौ महीने लगे हैं.
आंग्ल भाषा की इस किताब का शीर्षक है, क्या हम सभ्य हैं ? मुझे इसे पढ़ कर बेहद ख़ुशी हुई. इसे समझने में जो वक़्त लगा उसने मेरी एकाग्रता को बढाया. इससे मैंने जाना कि सभ्यता एक बेहद शिथिल विकास प्रक्रिया के सर्वमान्य मूल्यों के दस्तावेज़ को कहते हैं. दूसरी बात जानी कि जिसे हम सभ्य होना मान रहे हैं वह वास्तव में पांच सौ बरस ईसा पूर्व की ग्रीक वेतनभोगी गुलाम सभ्यता का बेहतर गणितीय उद्धरण मात्र है. हमारी कला साहित्य और संस्कृति का विकास बेहद लचीले तरीके से हुआ है और इसमें स्यादवाद का बड़ा भाग मौजूद है.
साल की आखिरी शाम को जया से पूछा कैसे चल रही है ज़िन्दगी ? उसने बताया कि "ख़ास उम्मीद तो नहीं थी लेकिन तुम ठीक निकले..." इस उत्तर के बाद हम दोनों बाज़ार चले गए. सड़कें गर्द से भरी थी फिर भी नए साल के स्वागत में दुकानों के आगे झालरें लगी हुई थी. मॉल जितने जवान थे, कमसिन लड़कियां उतनी ही दिल फरेब रही होंगी लेकिन हमने बाज़ार का एक चक्कर काटने के सिवा अपने मित्र कमल अग्रवाल साहब की मिठाई की दुकान जोधपुर मिष्ठान भंडार से गुलाब जामुन और कुछ नमकीन ली और पड़ौस की वाइन शॉप से आर सी की बोतल.
जया को अपनी एक छोटी सी कविता सुनाई. " सनसनाती याद के कोड़े, तुम बरसो इश्क़ की पीठ पर कि कोई शाप खाली न जाने पाए. इंतज़ार तुम कील बन कर चुभ जाना आँख में कि पलकों की ओट में छुपे रंगीन ख्वाबों के प्रेत को बींधा जा सके. सांसों तुम्हें मरुथल की मरीचिका की कसम कि दौड़ते रहना धरती के दूसरे छोर तक जहां उदास प्रेम आखिरी बोसा तुम्हारे गाल पर रखने के वचन से बंधा है. और फिर इस तरह तमाम बीते हुए सालों के इश्क़ की केंचुली, जब तक उतर न जाये, सनसनाते हुए याद के कोड़े तुम बरसते रहना, कीलों तुम चुभते जाना और साँसों तुम दौड़ते रहना... "
* * *
एक बेहद मामूली इंसान की नासमझी को पढना बड़ा कष्टदायक काम है इसलिए मैं हथकढ़ पढने वालों का दिल से आभार व्यक्त करना चाहता हूँ. मेरे इस बीते हुए साल का कुल हाल प्रिय शाईर इब्ने इंशा साहब के इस शेर में मिलता है. इस शेर में कुछ उर्दू के शब्दों का अर्थ इस तरह है. दहर - ज़माना, अमाँ - शांति, शहरे-बुताँ - प्रेमिकाओं का नगर, ख़राब - उजड़े हुए, दश्ते-जुनूँ - पागलपन का जंगल. नए साल में धन दौलत से क्या करियेगा इसलिए नया साल आपके लिए थोड़ा सा इश्क़ और बहुत सा सुकून लेकर आये. मेरे लिए थोड़ी सी शराब...
पिछले साल एक किताब कभी रजाई से झांकती तो कभी उत्तर दिशा में खुलने वाली खिड़की में बैठी रहा करती. कभी ऑफिस में लेपटोप केस से बाहर निकल आती फिर कभी शामों को शराब के प्याले के पास चिंतन की मुद्रा में बैठी रहती. मैं जहां जाता उसे हर कहीं पाता था. कुछ एक पन्नों की इस किताब के एक - एक पन्ने को पढने में मुझे समय लगता जाता. आखिर दोस्त अपने परिवारों में मसरूफ़ हुए, ब्लॉग और फेसबुक पर ख़त-ओ-किताबत कम हुई और मैंने उसे पढ़ लिया. इसे पढने में मुझे कोई आठ - नौ महीने लगे हैं.
आंग्ल भाषा की इस किताब का शीर्षक है, क्या हम सभ्य हैं ? मुझे इसे पढ़ कर बेहद ख़ुशी हुई. इसे समझने में जो वक़्त लगा उसने मेरी एकाग्रता को बढाया. इससे मैंने जाना कि सभ्यता एक बेहद शिथिल विकास प्रक्रिया के सर्वमान्य मूल्यों के दस्तावेज़ को कहते हैं. दूसरी बात जानी कि जिसे हम सभ्य होना मान रहे हैं वह वास्तव में पांच सौ बरस ईसा पूर्व की ग्रीक वेतनभोगी गुलाम सभ्यता का बेहतर गणितीय उद्धरण मात्र है. हमारी कला साहित्य और संस्कृति का विकास बेहद लचीले तरीके से हुआ है और इसमें स्यादवाद का बड़ा भाग मौजूद है.
साल की आखिरी शाम को जया से पूछा कैसे चल रही है ज़िन्दगी ? उसने बताया कि "ख़ास उम्मीद तो नहीं थी लेकिन तुम ठीक निकले..." इस उत्तर के बाद हम दोनों बाज़ार चले गए. सड़कें गर्द से भरी थी फिर भी नए साल के स्वागत में दुकानों के आगे झालरें लगी हुई थी. मॉल जितने जवान थे, कमसिन लड़कियां उतनी ही दिल फरेब रही होंगी लेकिन हमने बाज़ार का एक चक्कर काटने के सिवा अपने मित्र कमल अग्रवाल साहब की मिठाई की दुकान जोधपुर मिष्ठान भंडार से गुलाब जामुन और कुछ नमकीन ली और पड़ौस की वाइन शॉप से आर सी की बोतल.
जया को अपनी एक छोटी सी कविता सुनाई. " सनसनाती याद के कोड़े, तुम बरसो इश्क़ की पीठ पर कि कोई शाप खाली न जाने पाए. इंतज़ार तुम कील बन कर चुभ जाना आँख में कि पलकों की ओट में छुपे रंगीन ख्वाबों के प्रेत को बींधा जा सके. सांसों तुम्हें मरुथल की मरीचिका की कसम कि दौड़ते रहना धरती के दूसरे छोर तक जहां उदास प्रेम आखिरी बोसा तुम्हारे गाल पर रखने के वचन से बंधा है. और फिर इस तरह तमाम बीते हुए सालों के इश्क़ की केंचुली, जब तक उतर न जाये, सनसनाते हुए याद के कोड़े तुम बरसते रहना, कीलों तुम चुभते जाना और साँसों तुम दौड़ते रहना... "
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एक बेहद मामूली इंसान की नासमझी को पढना बड़ा कष्टदायक काम है इसलिए मैं हथकढ़ पढने वालों का दिल से आभार व्यक्त करना चाहता हूँ. मेरे इस बीते हुए साल का कुल हाल प्रिय शाईर इब्ने इंशा साहब के इस शेर में मिलता है. इस शेर में कुछ उर्दू के शब्दों का अर्थ इस तरह है. दहर - ज़माना, अमाँ - शांति, शहरे-बुताँ - प्रेमिकाओं का नगर, ख़राब - उजड़े हुए, दश्ते-जुनूँ - पागलपन का जंगल. नए साल में धन दौलत से क्या करियेगा इसलिए नया साल आपके लिए थोड़ा सा इश्क़ और बहुत सा सुकून लेकर आये. मेरे लिए थोड़ी सी शराब...
जब दहर के ग़म से अमाँ न मिली, हम लोगों ने इश्क़ इजाद किया
कभी शहर-ए-बुताँ में ख़राब फिरे, कभी दश्त-ए-जुनूँ आबाद किया
कभी शहर-ए-बुताँ में ख़राब फिरे, कभी दश्त-ए-जुनूँ आबाद किया