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विलायती बबूल

मुद्दतों से ये आलम न तवक्को न उम्मीद. शाम के होने से पहले मैं सैनिक कॉलोनी से होता हुआ सड़क पर आता. वहां से कभी पैदल या रिक्शे में बैठ कर शहर के बीच सफ़ेद घंटाघर तक पहुँचता मगर फिर ख़याल आता कि कहीं नहीं पहुंचा हूँ. वही पत्थर से बनी हुई सड़कें, फुटपाथ तक पसरी हुई बरतनों की दुकानें, चाय पीने वालों के लिए बिछी हुई बेंचें, दर्जियों की मशीनों से आती परिचित सी आवाज़ें और मेरे साथ वही मेरी तन्हाई. एक तो वो शहर नया था और फिर मेरी निगाह में कोई दूसरी मंज़िल न थी. शहर से लौट कर आता तो रात भर घर से बाहर बैठे रहने को जी चाहता रहता था.

शाम के ट्रांसमिशन में रेडियो पर गाने बजा रहा होता तो गुजर हो जाती लेकिन खाली शामें बहुत सताती थी. ढाबे से पैक होकर आया खाना कमरे में अपनी खुशबू बिखेरता रहता और मैं अपने किराये के घर के कोर्ट-यार्ड में पसरी हुई रेत पर नंगे पांवों को रखे हुए कुछ सोचता जाता. रेत की ठंडक पांवों को सुकून देती थी. बेख़याल सामने की दीवार को देखता और विस्की पीता. उस समय मेरे पास में ऑफिस से लाया हुआ एक रजिस्टर रहता. जिसमें कुछ कविताओं सा लिखता जाता.

विलायती बबूल : चार कविताएं

[1]
जालोरी बारी में खड़े
घने नीम पर रोज कूकती है कोयल
फिर भी नीले रंग के घरों की
छोटी खिड़कियाँ अक्सर बंद रहती है.

चौराहे के पार कड़ी घूप में
शाही समोसा खाते हुए आता है ख़याल
कि काश यहाँ एक विलायती बबूल हुआ होता
या खुली होती कोई खिड़की
कि ज़िन्दगी में थोड़ी सी छाँव जरुरी है.

[2]
साफ़ मैदानों में खड़े लोग कहते हैं
देखो अब दीखता है ना सुंदर !

मगर विलायती बबूल फिर से उग आते हैं
दीवारों के बीच, गली के नुक्कड़ पर
रसोईघर के पीछे या आँगन की कोर पर.

गोया विलायती बबूल प्रेम की अमर बेल है.
(अक्टोबर 22, 1993 शुक्रवार)

[3]
विलायती बबूल से नहीं लिपटती
कोई फूलों वाली बेल
इसके छोटे-छोटे पत्तों में छुप कर
मुश्किल है कोयल के लिए गीत गाना
इसकी सूखी शाखों के बीच नहीं है घोंसला.

कभी एक सफ़ेद पंखों वाली खूबसूरत तितली
इसके पास से गुजरा करती है
जैसे डाकिया आता है खानाबदोश लुहारों की गली में.


[4]
प्रेम
पहाड़ से लुढका हुआ पत्थर है
या सूखी नदी के बीच का
हाथ भर गहरा भीगा हुआ गड्ढा है
या तनहा दोपहर की नितांत सूनी चौंध है

नहीं...
प्रेम वस्तुतः विलायती बबूल है, जिसकी जड़ नहीं जाती.

(अक्टोबर 27, 1993 बुधवार)


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