धुंध भरे दिनों का ये मौसम धरती के छोरों की ओर लौट जायेगा. कुछ ही दिनों में अपने पंखों पर आग ढ़ोने वाली अबाबीलें आसमान पर मंडराएगी. लू दरवाजों पर दस्तक दे रही होगी और हरी घास दिन ब दिन झुलसती जाएगी. रोहिड़ा पर खिल रही होगी फूलों की रंगत. उन भरी धूप वाली लम्बी उदास दोपहर की नाउम्मीद छाँव में बैठे हुए सांस उखड़ने लगेगी. बरसों से ऐसा ही होता आया है कि ख्वाब दोपहर की नींद में सो जाते हैं और मैं किसी इंतज़ार में सुनता रहता हूँ... बुझ गई राह की छाँव.
हाँ उन सीढ़ियों के पास बैठा रहने वाला फ़कीर घनी छाँव वाले पेड़ के नीचे चला जायेगा. हरे कृष्ण गाते हुए दो भक्तों का जोड़ा पिछले कई बरसों से शहर के बीचे से तेज कदम गुजरता था. सुना, उनकी भी जोड़ी टूट गई. सूरज ढल गया तो परछाई भी बुझ गई. पुराने दोस्त के पास से उठते हुए मैंने खुद से कहा, शहर के दरवाजे छोटे हैं और भीड़ बढती जा रही है. इस रेत के सहरा को प्यासे पार करते हुए चालीस साल बीत गए हैं. चलो उसी छत पर जहां रात भर ख्वाबों को उधेड़ते और बुनते हो.
हाँ उन सीढ़ियों के पास बैठा रहने वाला फ़कीर घनी छाँव वाले पेड़ के नीचे चला जायेगा. हरे कृष्ण गाते हुए दो भक्तों का जोड़ा पिछले कई बरसों से शहर के बीचे से तेज कदम गुजरता था. सुना, उनकी भी जोड़ी टूट गई. सूरज ढल गया तो परछाई भी बुझ गई. पुराने दोस्त के पास से उठते हुए मैंने खुद से कहा, शहर के दरवाजे छोटे हैं और भीड़ बढती जा रही है. इस रेत के सहरा को प्यासे पार करते हुए चालीस साल बीत गए हैं. चलो उसी छत पर जहां रात भर ख्वाबों को उधेड़ते और बुनते हो.
ये कैसा वादा था कि
अश्कों से जादू जगाने की मनाही थी
चुप सी पसरी थी परीशाँ मौसम में
जैसे बात कोई बाकी न थी
हवा अपनी सरसर से लिखती थी शिकवे रेत पर
शिकस्ता चाँद डूबा जाता था, ये किसकी याद आती थी.
चल उठ, उसी महबूब के घर चलें !