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मेहरुन्निसा ख़ाला, आप बहुत अच्छा लिखती हैं...

दोपहर की धूप लाचार सी जान पड़ रही थी. दफ्तर सूना और कमरे बेहद ठन्डे थे. स्टूडियोज में बिछे हुए कालीनों तक जाने के लिए शू ऑफ़ करने होते हैं तो काम के समय पांव सारा ध्यान खींचे रखते हैं. अफसरान का हुक्म है कि हीट कन्वेक्टर का इस्तेमाल किया जाये लेकिन रेगिस्तान में दिन के समय इनका उपयोग मुझे बड़ा अजीब सा लगता है. मैं अपनी रिकार्डिंग्स को पूरा करके बाहर खुले में निकल जाता हूँ. कार्यालय के भीतरी द्वार के ठीक आगे सरकारी कारों के घूमने के लिए जगह छोड़ी हुई है. बीच के छोटे से बागीचे और हमारे माली के बीच पिछले सत्रह सालों से लडाई चल रही है. मिट्टी अपने फूल खिलाना चाहती है माली दूसरे फूल.

गार्ड के पास कपड़े की लीरियों और चिंदियों को कातने का हुनर है. वह एक्स आर्मी पर्सन है. कभी मुलायम कपड़े की फुल थ्रू से बंदूकों की नाल साफ़ करते रहे होंगे, आज कल ढेरिया घुमाने या क्रिकेट कमेंट्री सुनने के सिवा विशेष अवसरों पर होने वाली पार्टियों में आर्मी के सलीके से पैग बनाते हैं. मुझे देखते हैं और कहते हैं कुर्सी लगा देता हूँ लेकिन मैं पिछले तमाम सालों में उलटे रखे हुए गमलों पर बैठना पसंद करता रहा हूँ. मैं धूप वाले गमले की ओर बढ़ गया. लाइब्रेरी में मैंने किताबों को आधे घंटे तक देखा था और कुछ समझ नहीं आया तो मेहरुन्निसा परवेज़ का कथा संग्रह सोने का बेसर उठा लाया था.

इन ख़ाला का जन्म शायद आज़ादी से पहले का है और साठोतरी कहानी से इनका नाम चर्चा में आया था. पुस्तक के फ्लेप पर जो परिचय लिखा है वह मेरे जैसे कम पढने वाले के लिए अपर्याप्त है. पाठक अक्सर लेखक के बारे में जिज्ञासाएं रखता है. कहानी और कथाकार दोनों से प्रेम एक साथ उमगता है. मैंने धूप में उलटे रखे गमले पर बैठ कर कहानियां पढनी शुरू की और फिर अपनी तीसरे दिन की ड्यूटी के दौरान इसे संपन्न कर लिया. मैं कम पढता हूँ किन्तु इस बार मैं संग्रह को जल्दी इसलिए पूरा कर पाया कि मेरा मन उचाट था, कोई वस्ल की बात नहीं थी और फ़िराक़ के किस्से भी नहीं थे.

इस कहानी संग्रह का प्रकाशन छठे दशक का है. ख़ाला ने इसे अपनी तीन नन्हीं जानों को समर्पित किया है. उनमें एक नाम है समर. इस संग्रह को पढ़ते हुए मुझे याद आता रहा कि ये उस दौर की कहानियां हैं जिसमें कविता, कथा बनने की और कथाएं कविता बनने की होड़ में नहीं थी. बिम्बों के कांकड़ हुआ करते थे और शिल्प ऐसी पटरियां गढ़ता था जिन पर कौतुहल भरा कथ्य दौड़ता रहे. कहानियां परिवेश को सूक्ष्मता से अंगीकार करती थी. पात्र उतने ही हौसले वाले हुआ करते थे जितने वे लाचार होते.

मैंने इन कहानियों को पढ़ कर बहुत आनंद उठाया है, खासकर पत्थरवाली गली को मैंने दो बार पढ़ा और जुगनू इसलिए पसंद आई कि उसके परिवेश से कथाकार का रोम रोम परिचित है. लोक जीवन की कहावतों और आंचलिक कथाओं का सुन्दरता से उपयोग इन कहानियों में एक कॉमन खूबी है. बोल-चाल के छोटे-छोटे किस्से सकेरना मेहरुन्निसा ख़ाला को बहुत आता है. कहानियां पढ़ते हुए मुझे कुछ याद आने लगता है मगर क्या ? इसी नासमझी में सोचता रहता हूँ फिर एक उपन्यास का नाम याद आया, समरांगण. हाँ मैंने इसे कभी पढ़ा होगा. मुझे मेहरुन्निसा परवेज़ के बारे में कुछ जानकारी नहीं है लेकिन उस उपन्यास के आगे कुछ ऐसा लिखा है, मेरे बेटे समर प्रताप के लिए जिसकी पार्थिव देह आँगन में मेरी आँखों के आगे रखी थी...

हम सब को एक दिन किसी न किसी पत्थरवाली गली से गुजरना होता है. ज़िन्दगी जितनी खूबसूरत है उतनी ही बेरहम भी होती है ?

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