यह कुछ ऐसा ही है जैसे ये सोचना कि दीवार के उस पार क्या है?
मैं अपने
बिस्तर पर कभी औंधा लेटा हुआ आँगन को देखता या पीठ के बल सोते हुए छत को
ताकता सोचता हूँ कि बाहर की हवा में ठण्ड है. अचानक कोई झोंका आता है. हवा
इस तरह से बदन को छूती है जैसे कोई आहिस्ता आहिस्ता दस्तक दे रहा हो. वह
असंगत लय है. अभी एक बार छुआ थोड़ा रुक कर तेजी से दो तीन बार फ़िर से छू
लिया. मैं एक छोटे से इंतजार के बाद उसे भूलने को ही होता हूँ उसी वक़्त
हवा फ़िर से दस्तक देती है. जैसे किसी ने अपने ठन्डे हाथ धीरे से गाल पर
रखे और वापस खींच लिए.
ये कौन है? जो मेरे मन को दरवाज़े के बाहर खींच ले जाता है. वहां अँधेरा है.
मैं उस जगह को रोज़ देखता हूँ, वहाँ कोई नहीं रहता. उस खुली जगह पर कोई
नहीं है तो फिर वहां पर मेरा मन क्यों चला गया है. सूरज की रौशनी के बुझते
ही शोर जब अपनी दुम को अपने ही मुहं में दबा कर सो जाता है तब क्या कोई दबे
पांव वहाँ आकर रहने लगता है? संभव है कि चीजें जादुई हैं और वे हर घड़ी
अपना रंग बदलती रहती है. हो सकता है क्योंकि हमारा रंग भी हर पल परिवर्तित
होता रहता है. जैसे मन का रंग, सामर्थ्य का रंग, व्यवहार का रंग, आशाओं का
रंग और भी हर तरीके से हम स्थूल और सूक्ष्म बदलाव को जीते रहते हैं.
मेरा मन बाहर ही अटका है और हवा की छुअन एक बहाना भर है.
संभव है कि किसी अजाने की प्रतीक्षा है और मैं उसे अपने आप से छुपा
रहा हूँ. या फिर भीतर कुछ आलोडित है और बाहर भाग जाना चाहता हूँ. कुछ इस तरह की उम्मीदें भी हो सकती है, जिनके बारे में दिन को सोचना मुमकिन
न हों. अब तक के सीखे और एकत्र किये गये अनुभव की स्मृति कहती है कि
खुली हवा में साफ़ आसमान के नीचे पसरे अँधेरे में भय की सिहरन बिछी हुई होगी. सिहरन उत्तेजना और शिथिलता के बीच की बारीक और प्रभावी रेखा है.
बाहर अँधेरा है. अँधेरा हवस से भरा है क्योंकि कौमार्य को बचाए रखने के लिए जिसका प्रतिकार करना है वह हवस ही है. लेकिन अँधेरे का जादू बुला रहा है. वहाँ प्रतिपल आशंकाएं है. अँधेरे का
चरम उत्कर्ष हर तरफ से चूमने लगेगा. सिहरन बढती जाएगी. क्या यही कामना मुझे
बाहर बुला रही है. हवा फ़िर से छू गयी है.
दरवाज़े के पार अँधेरा है.