सुबह के ग्यारह बज चुके थे। प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन के गेट नंबर तीन से बाहर निकलते ही पाया कि एक लंबी कतार पुस्तक मेले में प्रवेश के लिए प्रतीक्षारत है। मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियाँ उतरने से पहले दिखने वाला ये बेजोड़ नज़ारा पुस्तकों से प्रेम की खुशनुमा तस्वीर था। मैंने ग्रीन पार्क से मेट्रो पकड़ी थी। कनाट प्लेस, जिसे राजीव चौक कहा जाता पर बदल कर प्रगति मैदान आया था। नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया द्वारा हर दो साल में आयोजित होने वला विश्व पुस्तक मेला इस साल से हर साल आयोजित हुआ करेगा। इस छोटी होती जा रही ज़िंदगी में दो साल इंतज़ार करना किसी भी पुस्तक प्रेमी के लिए एक बहुत बड़ी परीक्षा जैसा होता होगा। कई सारी कतारों में खड़े हुये अंदर जाने के लिए टिकट पा लेने का इंतज़ार करते हुये लोग, पढे लिखे संसार का रूपक थे। वे अपने परिवार के सदस्यों और मित्रों के साथ आए थे। मौसम ज़रा सा ठंडा था लेकिन घर पहुँचने में दे हो जाने की आशंका के खयाल से सबने स्वेटर और जेकेट पहने हुये थे। वह रंग बिरंगा संसार हर उम्र के लोगों से बना हुआ था। मैंने चाहा कि मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियाँ उतरने से पहले इस दृश्य को खूब जी भर के देखता रहूँ। मैंने कई बार नाच गानों के कार्यक्रमों के लिए टिकट लेने की लाइंस भी देखी हैं। वहाँ लुच्चे और शोहदे अपने स्तर के अनुरूप व्यवहार करते हुये दिख जाते हैं। वहाँ सीटियाँ बज रही होती हैं, धक्का देने का कारोबार पूरे शबाब पर होता है और व्यवस्था के नाम पर बदतमीजी का आलम हुआ करता है। लेकिन इन कतारों में शालीनता थी। सलीके से टिकट लेते हुए लोग इतनी भारी भीड़ के बावजूद बिना किसी को धक्का दिये प्रवेश कर रहे थे। ये किताबों का ही जादू है कि वे अपने पाठकों को संस्कृत करती हैं। किताब पढ़ने वाले लोग ही सिर्फ बुद्धिमान नहीं होते हैं लेकिन इतना ज़रूर है कि उनके सभ्य होने की उम्मीद की जा सकती है। यही उम्मीद कायम थी।
प्रगति मैदान अपने नाम के अनुरूप किसी खेल के मैदान जैसी जगह नहीं है। वहाँ पर प्रदर्शनी और इसी तरह के आयोजनों के लिए कई विशाल बहुमंजिला भवन बने हुये हैं। इनका आकार इतना बड़ा है कि एक ही हाल में तीन सौ से अधिक स्टाल लगे हुये थे। प्रकाशकों और पुस्तक प्रेमियों के इस मेले में पाँव रखने को जगह न थी। लोग एक दूसरे से टकराने से बचते हुये चल रहे थे। लोग प्रदर्शनी में रखी हुई पुस्तकों को अपने हाथों से छू कर देख रहे थे। वे कई किताबों को उलटते पलटते हुये अपने दिल को रोक लेते कि आखिर कोई कितनी सारी किताबें घर ले जा सकता है। मेरे पास जो सबसे पहली किताबें रही होंगी वे हिन्दी की बारहखड़ी और अङ्ग्रेज़ी की वर्णमाला सीखने वाली होंगी। मैं एक अजीब आदत की गिरफ्त में हमेशा से रहा हूँ। अगर मुझे हवाई जहाज मिल जाए और मेरा अध्यापक मुझे हवाई जहाज के पुर्जों और काम करने के तरीके के बारे में सीखने लगे तो मैं बोर होने लगा हूँ। मैं चाहता हों कि अभी इसी वक़्त मुझे पायलट सीट पर होना चाहिए और जहाज हवा में। इसी तरह मैंने कभी पाठ्यक्रम की पुस्तकों को गंभीरता से नहीं देखा। ऐसा करने की यही वजह थी। मुझे अचरज होता है कि ऐसा कैसे संभव है, हम किताब और किताब में फर्क करते हैं। कुछ जो ज़रूरी है उसे छोड़ देते हैं और गैर ज़रूरी को सीने से लगाए फिरते हैं।
पुस्तक मेला चार फरवरी को आरंभ हुआ था। इस मेले में हर बार किसी देश के साहित्य को खास तौर से आमंत्रित किया जाता है। इस बार दुनिया में समानता के पक्षधर अग्रणी देश फ्रांस का पेवेलियन था। हम किताबों के संसार में घूमते हुये थक गए तो बाहर हरी दूब में आकर बैठ गए। एक कोने में युवा कवि-कवयित्रियों का घेरा था। वे अपने कविता पाठ में मशगूल थे। उनके पास ही एक माँ अपनी बेटी के साथ बैठी हुई तल्लीनता से उसी वक़्त खरीद कर लायी गयी किताब को पढ़ रही थी। पूरे लान में लोग थे। मैं आभा और मानविका के साथ मुंबई से आई हमारी पारिवारिक मित्र राज जैन के साथ धूप में चमकते हुये प्रदर्शनी के पोस्टरों के रंगों को देख रहा था। मेरे ठीक पीछे अनुवादकों का दल बैठा हुआ इस चर्चा में खोया हुआ था कि क्या आज के दौर में अनुवादक सिर्फ अनुवाद के सहारे अपना जीवनयापन कर सकता है? मेरे दिल से आवाज़ आई कि विश्व पुस्तक मेले में उपस्थित ये लोग देश भर के प्रतिनिधि मात्र हैं। ऐसे ही मेले हर जिले में लगते हों और वहाँ इतने ही साहित्य प्रेमी पहुँच सकें तब कहीं किताबों के सिपाही अपना जीवन इस पेशे में रह कर गुज़ार सकेंगे। वहीं फ्रांस से आए लेखक और किताबों के चाहने वाले हिन्दी भाषा सीख रहे थे।
इस बार के विश्व पुस्तक मेला में मुझे हिन्दी में बेस्ट सेलर विषय पर अपनी बात कहनी थी। हाल नंबर अट्ठारह के ऑडिटोरियम संख्या एक में आयोजित इस कार्यक्रम में राज्यसभा टीवी के लिए गुफ़्तगू कार्यक्रम प्रोड्यूस करने इरफान साहब एक नियायामक के रूप में थे। किताबों के इस अनूठे आयोजन से जो तस्वीर सामने आती है उसके विपरीत सच ये है कि आजकल हम किताबें पढ़ते ही नहीं हैं। कोई भी किताब खरीदे हुये अरसा बीत जाता है। मेरी कहानियों का पहला संकलन आया तो आश्चर्यजनक तरीके से उसका पहला संस्करण तीन महीने से कम समय में ही बिक गया। ये सब इसलिए संभव हो सका कि इस नए दौर में पाठक किताब की दुकान तक जाने की जगह घर बैठे हुये अपनी पसंद की पुस्तकें मँगवाता है। इन्टरनेट पर मेरे चाहने वाले पिछले पाँच सालों से लगातार पढ़ रहे थे और उन्हें मालूम था कि ये कहानियाँ उनकी रुचि की हैं। अब नया संसार इन्टरनेट का है। हम अपने सुख दुख और खुशी अफसोस को इसी के जरिये साझा करते हैं। आने वाले वक़्त की किताबें भी डिजिटल हुआ करेंगी। सब कुछ वक़्त के साथ बदल जाता है। इस बदलाव के साथ चलने वाले नए जमाने के प्रकाशक शैलेश भारतवासी कहते हैं। पहले इसी पुस्तक मेले में हिन्दी किताबों के बहुत सारे हाल हुआ करते थे, अब हिन्दी की किताबें सिमट कर एक ही हाल में आ गयी है। उनके चहरे पर ये कहते हुये उदासी से अधिक इस हाल से लड़ने और हिन्दी के भविष्य को सँवारने की लकीरें देखी जा सकती है। शाम होने से पहले प्रगति मैदान मेट्रो स्टेशन पर पाँव रखने को जगह न थी। लड़कियों की लंबी कतार थी। मेट्रो स्टेशन पर सामान की की जांच के लिए लगी एक्स रे मशीन अपने पेट से होकर गुजरती हुई असंख्य किताबों को दर्ज़ कर रही थी। मुझे बेहद प्यारे और इस दुनिया के लिए ज़रूरी आदमी सफ़दर हाशमी की याद आई। किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
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[ये लेख राजस्थान खोजखबर अखबार में 14 फरवरी 2013 को प्रकाशित हो चुका है]