मैं मीना कुमारी हो जाता हूँ। मेरे दोनों नाम नाकाम हो जाते हैं। मैं न महजबीन बानू होता हूँ और न मीना कुमारी। मैं अपने प्याले को भरते हुये एक ऐसे आदमी के बारे में सोचता हूँ जिसे किसी मौलाना ने कहा था कि चूम लेना, साथ सो जाना हराम नहीं है, मुहब्बत की क़द्र करना हराम है। मैं प्याले को भरते हुये कहता हूँ- जुगनू की उम्र उसके पीछे दौड़ रही रोशनी है। इसी रोशनी में अपनी दायीं टांग से जींस को ज़रा ऊपर कर लेता हूँ। मैं गिर पड़ता हूँ।
मुझे लगता है जैसे मीना गिर पड़ी हैं। या मैं ही मीना कुमारी हो गया हूँ। मेरी कार का ड्राईवर सीढ़ियाँ चढ़ कर आता है और कहता है बीबी आपको सहारा दूँ। मैं कहती हूँ- "नहीं, मुझे यूं ही आँगन पर गिरे पड़े रहने दो।तुम मेरी जगह खिड़की में खड़े हो जाओ और देखो धर्मेंद्र की गाड़ी आ रही है क्या?" वह नहीं आता। नए लौंडों को भी कितना गुमान होता है, अपने होने का। देखना मैं एक दिन ऐश की रोशनी और चाहतों के नूर से दमक रहे ज़िंदगी के इस बेनियाज़ प्याले को ठोकर मार दूँगी। बिखरी हुई शराब और गिरे पड़े प्यालों के बीच कुछ गहरी नज़्में मैं सौंप दूँ किसी ऐसे आदमी को जिसको दुनिया में बड़े नाम की तलाश हो। जो खुद को मशहूर देखना चाहे। मुझे बस एक उसी से मुहब्बत है। उसका नाम लेने से उसका घर बरबाद हो जाएगा। इसलिए मैं फिलहाल चाहती हूँ कि मेरे प्याले को फिर से कोई भर दे। कोई देखता रहे कि किसी कार की हैडलाइट इस ओर मुड़ती है क्या?
रूआँसा बैठी हुई लड़की
भरे हुये जलतरंग जैसी होती है
आप उसके गालों के ठीक पास
लहरों के आलोड़न से पूर्व की कंपन सुन सकते हैं
अगर आपने कभी पिया हो उदासी का समंदर।
और रूठा हुआ महबूब साँप की बांबियों में
हाथ डालता हुआ सपेरा होता है
ज़हर और दांत के बीच का बारीक फर्क
टटोलता है, सिर्फ किस्मत के सहारे।
मैं अभी ऑफिस से आया हूँ और सोच रहा हूँ
कि कासे में कॉफी की जगह अच्छी विस्की
या जिंदगी में किसी की जगह कोई होता तो क्या फर्क पड़ता?
मौत एक दिन सबको आनी है
प्याले एक दिन सब खाली हो जाने हैं।
बस तुम रहा करो।
* * *
कई दफ़ा
आवाज़ों की दुनिया में
एक चुप्पी सी तारी हो जाती है
कई दफ़ा टूटी मेहराबें बाते करती हैं।
कई दफ़ा
कितनी ही चीज़ें
पूरब से उगती हैं
और मेरे दिल में आकर बुझ जाती हैं।
कई दफ़ा
ये चाँद सितारे खो जाते है
सूरज भी मद्धम हो जाता है
कई दफ़ा
चलते चलते धरती भी रुक जाती है।
कई दफ़ा
रातों की स्याही पर
पंखों से उड़ानें लिखता हूँ
कई दफ़ा चुप्पी की टहनी पर बैठा
यादों के अक्स उतारा करता हूँ।
कई दफ़ा
मौसम सीला होता ही नहीं
और एक बूंद टपक सी जाती है
कई दफ़ा काँटों से लिखता हूँ
और अंगुली से मिटाया करता हूँ।
कई दफ़ा
सोचा है सबसे कह दूँ
गुलशन किसके नाम से खिलता है
कई दफ़ा ख़ुद से भी
तेरा नाम छुपाता जाता हूँ।
कई दफ़ा
इस दुनिया की कॉपी के पन्नों से
ख़ुद का नाम हटाता हूँ
कई दफ़ा ऐसे मरदूद ख़यालों के साये में,
तन्हा मैं डर जाता हूँ।
कई दफ़ा मैं अपने ही घर से उठता हूँ
और कहता हूँ, मैं अपने घर को जाता हूँ।
कई दफ़ा
ये चाँद सितारे, सूरज धरती
टूटी मेहराबें, रात की स्याही
पूरब से उगती हुई चीज़ें
सीला मौसम, फूल और कांटे
तनहाई और मेरे आँसू
सब कुछ गूंगे, सब कुछ बहरे
कि कई दफ़ा
जब तुम होते ही नहीं, होते ही नहीं...
* * *
[Painting Life as life - Courtesy - Olexander Sadovsky]