हम जाने क्या क्या भूल गए

आज सुबह से इतिहास की एक किताब खोज रहा था। किताब नहीं मिली। इस किताब में यात्री के द्वारा लिखे गए ब्योरों में उस काल का इतिहास दर्ज़ था। पिछले साल ही इस किताब को फिर से पढ़ा था। श्री लंका के सामाजिक जीवन में गाय के महत्व का विवरण लिखा था। गाय पूजनीय प्राणी था। इतना पूजनीय कि मनुष्य से उसका स्थान इस जगत में ऊंचा था। यात्री ने लिखा कि गोवध एक अक्षम्य अपराध था। मेरी स्मृति और ज्ञान के अनुसार रेगिस्तान के जिस हिस्से में मेरा जन्म हुआ वहाँ मनुष्य के हाथों या किसी अपरोक्ष कारण से मृत्यु हो जाना क्षमा न किए जाने लायक कृत्य था। मृत गाय की पूंछ को गले में डाल कर हरिद्वार जाने के किस्से आम थे। ये दंड का एक हिस्सा मात्र था। इसके सिवा जिसके हाथों गाय की मृत्यु हुई हो उसको अपना जीवन समाज सेवा और गायों की भलाई के लिए समर्पित करना होता था। किन्तु उस पुस्तक में उल्लेख था कि मनुष्य के हाथों गाय की मृत्यु होने पर उसी गाय की खाल में लपेट कर हत्यारे को ज़िंदा जला दिया जाता था। यह रोंगटे खड़े कर देने वाला विवरण या उल्लेख हमें कदाचित भयभीत कर सकता है अथवा हमें मनुष्य को दी जाने वाली इस सज़ा के विरुद्ध खड़ा कर सकता है। इस जगत में किसी भी प्रकार की हत्या का मैं विरोधी हूँ। हत्या अगर दंड के रूप में कहीं भी किसी के लिए भी हो मैं उसका पुरजोर विरोध करता हूँ। अचानक से हो सकता है कि आप इस किताब को पढ़ते हुये सब्जी मंडी में या शहरों की सड़कों पर रास्ता रोक कर बैठे हुये गाय के वंशजों को याद करने लगें। आपको गोबर से भरा हुआ हिंदुस्तान नज़र आए। आप किसी खास तरह की गंध से नाक को सिकोड़ लेना चाहें। लेकिन मेरी स्मृतियों में और जीवन में अब भी गाय एक बेहद प्रिय प्राणी है। वह अपने नख से लेकर शिख तक और जन्म से लेकर स्वाभाविक मृत्यु के पश्चात भी मनुष्य के दाता के रूप मे हैं।

मुझे सड़कों पर बैठे हुये आवारा पशुओं से प्रेम नहीं है। मैं इनको देख कर कभी अच्छा महसूस नहीं करता हूँ। मैं इनको देखते ही एक अफसोस करता हूँ कि लालची और स्वार्थी मनुष्य ने जानवरों से इस दुनिया में उनके हिस्से की ज़मीन छीन ली है। हम कंक्रीट के शहर खड़े करते जा रहे हैं मगर ये कभी नहीं सोच पाते हैं कि आखिर गाय और अन्य प्राणियों के लिए दुनिया में जो जगह थी उसे छीन क्यों रहे हैं। हमने चारागाहों को बेच दिया। उन पर कब्जा कर लिया। उनको नेस्तनाबूद कर दिया। हमने जंगल को निगल लिया है। हमने सब प्राणियों को अपने भक्षण की सामग्री समझ लिया है। हमने कुदरत के नियमों को तोड़ मरोड़ दिया है। हम सह अस्तित्व और सहजीवन की अवधारणा को भुला कर इसी एक बात पर आ गए हैं कि इस दुनिया में रहें तो सिर्फ हम ही रहें। इस नई दुनिया में सभी प्राणियों की तरह गाय का जीवन आज हमारे जीवन से बदतर है। हमें इसकी चिंता नहीं मगर हम इस बात के लिए रोना ज़रूर रोते हैं कि नक़ली दूध पीने वाली पीढ़ी की आँखें चौंधिया रही हैं। उनका पोषण गड़बड़ाता जा रहा है। बच्चे यूरिया से बना हुआ, वाशिंग पाउडर वाला दूध पी रहे हैं। गाय नहीं चाहिए मगर दूध चाहिए। वह भी ऐसा दूध कि गाय के बच्चे मर जाएँ मगर हमारे बच्चे जीएं। कुदरत का मखौल उड़ाने वाली इस सोच के जैसे अनेक नमूने हमारे जीवन का ज़रूरी हिस्सा हो गए हैं। न हम प्रेम करना जानते हैं, न जानना चाहते हैं। क्या गाय को पालने वाले हमारे पुरखे मूरख थे। हम आधुनिक कहलाना पसंद करने वाले लोग समझदार भी कहलाना चाहते है।

कुछ दिन पहले फेसबुक पर एक स्टेटस अपडेट देखा। आओ मेले चलें। मेला शब्द हमारे जीवन के सितार के खुशी भरे तार को छेड़ जाता है। मेले में जाना और अनेक सुख बटोर लाना भारतीय संस्कृति का एक ज़रूरी तत्व है। मेला एक ऐसा आयोजन है जो उत्साह और आनंद के चरम को बुन सकता है। ये स्टेटस अपडेट डॉ नारायण सिंह सोलंकी का था। मैं उनको जानता हूँ इसलिए समझ गया कि ये तिलवाड़ा में आयोजित होने वाले मल्लिनाथ पशु मेले में चलने का आह्वान था। मालाणी के घोड़ों और थारपारकर नस्ल की गायों के लिए प्रसिद्ध इस मेले में उत्तर भारत के कृषक अब भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। डॉ सोलंकी को अक्सर थारपारकर नस्ल की गायों के वंश को बचाने और बढ़ाने के लिए कार्यशालाओं को संबोधित करते हुये देखा सुना जा सकता है। वे एक पेशे से कुशल पशु चिकित्सक ही नहीं वरन अपने दिल में सभी जानवरों के लिए असीम दया का भाव भी रखते हैं। थार मरुस्थल में पशुपालन जीवन यापन का जरिया है। यहाँ इस पेशे की वजह से कहा जाता रहा है कि दूध आसानी से मिल जाता है मगर पानी मिलना मुश्किल है। डॉ सोलंकी पशुपालन विभाग की योजनाओं के बारे में बात करते समय कभी औपचारिक नहीं लगते। उनकी बातों में एक अदम्य उत्साह होता है जो मनुष्य और जानवर के सहजीवन का प्रबल पक्षधर होता है। इन सीमावर्ती जिलों में थारपारकर नस्ल की गायों के लिए खूब प्रयास किए गए हैं। बहुत सारे समाज सेवकों ने इस कार्य को आगे बढ़ाया है। लेकिन इस बदलते हुये तकनीक के दौर में सिर्फ तकनीक के सहारे ही जीया जाना बिलकुल असंभव है। क्या हम इन्टरनेट को दूह कर गाय का दूध निकाल लेंगे। इसके लिए हमें अपने वास्तविक जगत की ओर देखना ही होगा। हमें नई पीढ़ी को ये समझाना होगा कि गाय को किसी एक धर्म विशेष के पूज्य प्राणी की तरह देखने की जगह उसकी खूबियों को समझना होगा। क्रांतिकारी युवा नेता चे ग्वेवारा को दुनिया के असंख्य युवा अपना आदर्श मानते हैं। चे जब भारत आए थे तो उन्होने तस्वीरें खींचने के शौक और डायरी लिखने के काम में, सड़क पर बैठी गायों और फैले हुये गोबर की तस्वीरें ली। उन्होने लिखा कि ये असुविधाजनक और अच्छा न लगता हो कि सड़कों पर इस तरह जानवरों का कब्ज़ा हो मगर भारतवर्ष में गाय मनुष्य का सबसे सच्चा मित्र है। गाय की उपयोगिता अतुलनीय है। दोस्तों हम कैसी दुनिया बना रहे हैं? हमें सब भ्रांतियों से हट कर एक कॉमरेड की उस नज़र को देखना और समझना चाहिए कि भारत और गाय का रिश्ता कितना सुंदर है।
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[पेंटिंग तस्वीर सौजन्य : चित्रकार विशाल मिस्रा - कान्हा, गायों के चरवाहे के रूप में सबसे बड़ा मायावी]