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सब चारागरों को चारागरी से गुरेज़ था

मैं जयपुर से जोधपुर के लिए रोडवेज की बस में यात्रा कर रहा था। गरम दिनों की रुत ने अपनी आमद दर्ज़ करवा दी थी। ये काफी उमस से भरा हुआ दिन था। शाम के सवा छह बजे चली बस से बाहर के नज़ारे देखने के लिए अधिक समय नहीं मिला। कुछ ही देर बाद सड़क पर रोशनी की चौंध और आस पास से गुजरती हुई गाड़ियों के हॉर्न की आवाज़ों के सिवा सब कुछ कुदरत ने अपनी स्याही में छिपा लिया था। यात्री एक विध्यार्थी होता है। वह अनजाने ही अनगिनत चीज़ें सीखता रहता है। शायद इसीलिए पुरखों ने कहा होगा कि घर से बाहर निकल कर देखो कि दुनिया क्या है? लेकिन मैं पुरखों की सलाह के लिए नहीं बना हूँ। मुझे अकसर एक ही जगह पर बैठे रहना सुखकर लगता है। लेकिन ऐसा हमेशा संभव नहीं होता है। ज़िंदगी है तो गति भी है इसलिए मैं बस की पाँच नंबर सीट पर बैठा था। अचानक कुछ यात्री इस बहस में थे कि सात और आठ नंबर सीट किसके लिए है। जो यात्री बैठे थे उनका दावा था कि उन्हें टिकट खिड़की से कहा गया है कि इसी सीट पर बैठा जाए। एक सज्जन कह रहे थे कि ये सांसद कोटे की सीट है। कंडेक्टर ने बैठे हुये लोगों को उठाया और उनकी जगह एक वृद्ध दंपति ने ले ली। उन दोनों को देखते ही लगा कि उन्हें सीट ज़रूर मिलनी चाहिए थी। वे देश के वरिष्ठ नागरिक थे और उनकी सेहत का हाल खास अच्छा नहीं था। उम्र के गिरते हुये साल उनकी तस्वीर पर अनेक परछाइयाँ छोड़ गए थे। जिन पाँवों से उन्होने अनिगिनत मील सफ़र तय कर लिया था वे अब एक एक पग रखते हुये डगमगा रहे थे। उनके बाजू हाथ में पकड़ी हुई छड़ी से पैरों को सहारा दे रहे थे। मैं इस दंपति को भूल कर इस ख़याल में खो गया कि सांसद अथवा विधायक कोटे की सीट पर मैंने आखिरी बार कब किसी विधायक या सांसद को सार्वजनिक परिवहन सेवा का उपयोग करते हुये देखा था। मुझे कई बार रेल यात्राओं के दौरान विधायक और सांसद यात्री के रूप में मिले हैं लेकिन बस में इस उम्र के दौरान किसी को नहीं देख सका। अचानक से मेरे दिमाग में अनेक एसयूवी गाडियाँ घूमने लगी। ऐसी गाडियाँ कि जिनका डील डौल देख कर ही एक आम आदमी की हवा निकल जाए। वे किसी गेंडे या अफ्रीका के विशालकाय टस्कर के रूप सी भव्यता लिए हुये होती हैं। उनको देखते हुये मेरे जैसे छह फीट लंबे आदमी को लगता है कि वह एक शक्तिशाली चीज़ के पास खड़ा है। ये गाडियाँ मुझे सिर्फ विलासिता की ही नहीं वरन रुआब की प्रतीक लगती है। मैं बेहद उदास हुआ कि मैंने कभी बस में हमारे चुने हुये जन प्रतिनिधियों को सफ़र करते हुये नहीं देखा। मैंने सोचा कि काश वे कभी बस की यात्रा करते और देखते कि बसों का सफ़र कैसा होता है। राज्य के लोगों को कैसी परिवहन व्यवस्था मिल रही है।

अजमेर से एक भद्र महिला बस की एक नंबर सीट पर आयी। उनके हाव भाव और सहयोगी को देखकर मुझे लगा कि वे प्रशासनिक सेवा के किसी ग्रेड की नयी अधिकारी होंगी। इस बस में सवार कुछ परीक्षार्थियों से उन्होने उसी दिन हुई परीक्षा का पर्चा मांगा। दो तीन लड़के उन मैडम के इर्द गिर्द जमा हो गए। मैडम और बच्चों की शिकायत थी कि रीजनिंग वाले हिस्से ने बहुत सारा वक़्त खा लिया था। इसके बाद वे अपनी सीट पर बैठी हुई टेब से कुछ सर्फ करती हुई इधर उधर देखती रहीं। उन्होने अपने पाँवों को बेलौस सामने के काँच के पास लगी हत्थी पर टिका लिया था। वे किसी की परवाह किए बिना अपनी धुन में थी। बस का कंडक्टर एक भला आदमी दिखता था। लेकिन रात के अंधेरे में उसकी भलाई को नींद आ गयी होगी कि उस महिला को कहना पड़ा। कंडक्टर साहब अपना हाथ ठीक से रखिए। इस घटना के बारे में मुझे मेरे पासवाली सीट पर बैठे हुये यात्री ने बताया था। उनक कहना था कि देखिये आजकल कितना सख्त कानून है फिर भी पढे लिखे सरकारी सेवक भी अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आते। मुझे बेहद दुख हुआ कि एक महिला अधिकारी के सामने भी इस तरह के हादसे पेश आते हैं। मैं उन अनपढ़ महिलाओं के बारे में सोचने लगा जो दिल्ली से जोधपुर आ रही रेल में सवाई माधोपुर के आस पास कहीं से जनरल डिब्बे में चढ़ी थी। उनके पास लकड़ियों के गट्ठर थे। कंडक्टर को इस बात पर आपत्ति थी। जब बहस होने लगी तो मैंने भी सामान रखने की जगह पर बैठे हुये देखना शुरू किया। कंडक्टर ने उन नौजवान महिलाओं के साथ बदसलूकी शुरू कर दी थी। आधी रात के बाद के वक़्त में रेल डिब्बे के शौचालय के पास कंडक्टर उनसे शारीरिक छेड़ खानी किए जा रहा था। वे औरतें बहुत देर तक बर्दाश्त करती रही। आखिरकार उन सब ने एक होकर कंडक्टर को पीटना शुरू कर दिया। जब एक महिला कंडक्टर के सर के बाल पकड़े हुये उसे दबा रही थी और दूसरी पीटने लगी तब डिब्बे में बैठे हुये पुरुषों ने उन औरतों का साथ देना शुरू किया। आखिर मार खाया हुआ सरकारी सेवक माफी मांग कर डिब्बे से उतर सका। मैंने सीखा कि अपनी लड़ाई को खुद ही लड़ना चाहिए और अपमान को बर्दाश्त करते जाने से बेहतर है कि उसका शुरुआत से ही प्रतिरोध किया जाए। ये सबक मुझे अनपढ़ मजदूर औरतों ने सिखाया था।

हम जिस सुंदर समाज की कामना करते हैं वह हमें मुफ्त में चाहिए। हम कोई संघर्ष, कोई प्रतिरोध और कोई श्रम किए बिना उसे पाना चाहते हैं। हमारे भीतर बस पाने की चाहना है। त्याग को हम भूल चुके हैं। हमें रुतबा चाहिए, एसयूवी गाडियाँ चाहिए, नाज़ उठाने को नौकर चाहिए, सलाम बजाने को जनता चाहिए। ये हम कैसे हो गए हैं और इससे आगे निरंतर कैसे होते जा रहे हैं। रात एक बजे मैं अपने भाई के घर आकर सो गया। सुबह मेरी जब आँख खुली तो रात की उदासी पर एक बहुत बड़ी खुशी रखी हुई थी। समाचार पत्रों में जिस खबर पर नज़र गयी वह एक आम दिखने वाली किन्तु बेहद उम्मीदों से भरी खबर थी। राजस्थान उच्च न्यायालय के दो माननीय न्यायाधिपतियों ने अपनी गाड़ी से लाल बत्ती हटा लेने का फैसला किया था। मेरा मन उनके प्रति असीम प्यार से भर गया। मैंने चाहा कि मैं ऐसे लोगों को ठीक से सेल्यूट कर सकूँ। पावर के पीछे भागती हुई दुनिया को हम रोज़ देखते हैं। ऐसे उद्धरण कहीं नहीं दिखते कि अधिकारों से लेस जिम्मेदार आदमी एक आदमी की तरह जीने के संकल्प ले। अच्छा न्याय करना श्रेष्ठ गुण है लेकिन उच्च आदर्श स्थापित करने के लिए सुखों का त्याग करते जाना उससे भी बड़ा है। आज मैंने खाना खाने के बाद अपनी थाली को धोते हुये आभा से कहा कि अगर हम सब अपनी अपनी थाली को साफ रख सकें तो सींक के बासी बर्तनों से भरे होने की समस्या कभी नहीं होगी। वह मुस्कुरा रही थी। शायद उसने मन में कहा होगा कि कितने दिन? लेकिन सचमुच हम कर सकें अपने हिस्से का काम तो हमारा देश सबसे सुंदर हो जाए। फ़ैज़ साहब कहते हैं- "सब चारागरों को चारागरी से गुरेज़ था/ वरना हमें जो दुख थे बहुत लादवा न थे"
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