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शायर और अफ़साना निगारों के बारे में कुछ झूठी बातें।


असल में शायर कुछ नहीं होता, वह आफत की दुलत्ती, हराम की आदत, ख़्वाहिशों, रास्तों, मुश्किलों और तकलीफ़ों से निजात के लिए अपने ख़यालों में तवील बोसे और आला दर्ज़े की शराब बुन रहा, एक मामूली आदमी होता है और हम उसे समझ बैठते हैं, शायर दिल। उसकी छोटी तकलीफ़ें बहुत सारी होती हैं जैसे सलाम न बजाने वाला जमादार, टेढ़ी निगाहों से देखने वाला सूदखोर या साथ सोने से इंकार कर देने वाली औरत जिसे वह कई वजहों से समझता रहा है, बेईमान। और बड़ी तकलीफ़ एक ही हुआ करती है उसके साथ सोने के बाद उसकी आँखों के प्याले में बेरुखी भर कर चली जाने वाली नक़ली महबूबा। 
ठीक ऐसे ही अफ़साने कहने वाला आदमी वो जानवर होता है जो जीए हुये की जुगाली करने में, जीने से ज्यादा मजा पाता है। वह अपने आप के साथ सोया रहता है रात - दिन और जब इस हमज़ाद सेक्स से उकता जाता है तब बैठ जाता है पीने के लिए और सोचता है ज़िंदगी में आए उन किरदारों को, जिनके बारे में वह इसलिए नहीं लिख पाता कि अब भी जकड़ा होता है, मुहब्बत के बेड़ियों में।
इस दौर में भी पुराने ज़माने की तरह शायर/शाईरा या अफ़साना निगार हो जाने को दो तीन बच्चों वाली माँ या चालीस पार के एक अधेड़ उम्र वाले आदमी से प्यार करने की हिम्मत चाहिए जो किसी फिरे हुये सिर में ही होती है। ऐसे आदमी और औरतों के बारे में खयाल आते ही मुझे याद आता है वह तमाशेबाज़, जो अपनी पीठ पर कोड़े बरसाता हुआ हर सुबह गलियों में घूम कर, बच्चों का मन बहलाता सिर्फ इस बात का रखता है ख़याल कि कोड़े की आवाज़ जाए दूर से दूर तक। 
असल में मुझे लिखना कुछ और था मगर मेरी रूह की खाल जिस कसाई से उतार रखी है, उसकी याद से बाहर आना बड़ा मुश्किल है। फिर हर लम्हे को नहीं डुबोया जा सकता शराब में कि सुबह के वक़्त शराब ऐसी लगती है मुझे, जैसे किसी आदमी की आत्मा को नंगा देख लेने के बाद महबूबा छिप जाती है अफ़सोस के पलंग के नीचे और कोसती रहती है अपनी हवस को।
लेकिन मुद्दे की बात ये है कि जिस औरत की नाभि को बीच से सीधा काटती हुई एक लकीर जाती है उसकी छातियों तक, मैं उसी की मुहब्बत में जी रहा हूँ। वरना अब तक मेरी खाक उड़ कर ढ़क देती तुम्हारी पेशानी की तमाम सलवटें और तुम अगर भले आदमी या औरत होते तो दो पल के लिए रो देते मेरे नाम को।
इन बीते महीनों में मैंने कुछ लिखा नहीं है कि मैं लिख सकने के लायक ही नहीं हूँ अगर मैं अफ़साना निगार हो सकता तो लिखता कि ऐसी लकीर सिर्फ उस महबूब को ही याद रहती है जिसने अपनी ज़िंदगी पर बख़ुशी लगा दी हो ज़िबह हो जाने की मुहर। इस वक़्त मैं तड़प रहा हूँ बाज़ की चोंच से घायल परिंदे की तरह।मगर यूं कब तक मैं बचा रहूँगा शराब से और नई औरतों से मालूम नहीं मगर इतना तय है कि जब तक बाकी है तेरी याद शायर दिल कुछ नहीं होता और अफ़साना निगार होना कोई अच्छी बात नहीं है।
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ये पेंटिंग गूगल से ली गयी है। इसके बारे में मुझे कोई समझ नहीं है कि सारे पेंटर हर रोज़ अपनी आत्मा को ढ़क देते हैं नए रंग में।

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