परछाई की गंध

आँधी का झौंका
उड़ा देता है, रेत की कच्ची परत
आधी रात को चिंगारी जागती है लंबे अवकाश से।

दो बूंदें भिगो देती है 
स्याही पर चमकती आग की रूह को
रेगिस्तान फिर सो जाता है पिछली रात के ख्वाब में।

मद्धम हवा पुकारती है एक विस्मृत नाम
और फिर रात के लंबे घने बालों में ओढ़ लेती है चुप्पी।

अलसाई गठरी से चुन कर
याद का रेशमी धागा
चिड़िया अपने घोंसले में लिखती है बीते दिनों की परछाई की गंध।

वक़्त की राख़ को पौंछ कर
आसमान में चाँद सजा लेता है एक सितारा अपनी दायीं तरफ।

तुम भी देखो, मैं ज़िंदा हूँ इन सबमें थोड़ा थोड़ा।
* * *


[Painting Image Courtesy - Joan Miro]