ज़िंदगी हमसे चाहती क्या है, बताती क्या
ये बात उस आदमी के बारे में है
जिसकी महबूबा उसकी पीठ के पीछे हैं
मगर वह मुड़ कर
उसे आइस पाइस नहीं कह सकता।
उसे छिपे रहने में क्या मजा है, इस सवाल की मनाही है।
मेरे खयाल से ये बात
उस औरत के बारे में भी हो सकती है
जो अपने महबूब को आवाज़ देती है
और वह जनाना कपड़ों के ढेर से उठता हुआ
कहता है मैं इधर ही हूँ।
वह अक्सर उधर से ही क्यों नुमाया होता है,
ऐसा पूछते ही ताअल्लुक बोझ बन जाता है।
वास्तव में साबुत करेक्टर होने की
जो बुनियादी बातें
हमें सिखायी जाने की कोशिशें की गई थी
उनका असल चेहरा
किसी कुंठित कारीगर का बनाया हुआ लगता है।
मैं छठे माले के घर से देख रहा हूँ
कि हद दर्ज़े की पहरेदारी में बड़े हुये
एक सफ़ेद फूलों वाले पेड़ के तने में
लोहे के ट्री गार्ड ने अपने दाँत गड़ा रखे हैं
पहले ये दाँत मवेशियों के लिए बनाए गए थे।
लोग पेड़ के फूलों पर एक नज़र डालते हैं
और आगे बढ़ जाते हैं, बिना सुख दुख पूछे।
जिस तरह पीठ पीछे से महबूबा आवाज़ नहीं देती
जिस तरह जनाना कपड़ों से महबूब बाज़ नहीं आता
जिस तरह बुनियादी बातों के पीछे का मकसद कुछ और है
जिस तरह एक ट्री गार्ड अपने ही अपने ही शरणार्थी का फंदा बन जाता है
उसी तरह ज़िंदगी हमसे चाहती क्या है और बताती क्या
ये कोई जान नहीं सकता है।
* * *
सन्यास की चाशनी में वियोग की धुन
मैं एक सूप बनाता हूँ
हवा की गिरह को खोल कर
समय की तीलियों पर रखता हूँ, अब तक का कमाया हुआ
फिर आहिस्ता से ज़मीन और आसमान के बीच लटका कर
अफसोस और खुशी के पलों को छांटता हूँ, ज़िंदगी की तंग चादर पर।
हवा बन जाती है बच्चों के खेल की उड़न तश्तरी
मैं एक कुत्ते की तरह दौड़ कर
पकड़ लेना चाहता हूँ उसे किसी चिड़िया की मानिंद
मेरे मुंह में बची रह जाती है, सरसराहट बीती हुई उम्र की।
मैं एक महबूबा चुनता हूँ
खुशियों से बेखबर, अक्वेरियम में बंद सुनहरी मछली जैसी
या शायद गरमी के दिनों में रेगिस्तान में
सुर्ख-पीले फूलों से भरे रोहिड़े के खूबसूरत पेड़ की तरह।
हम दोनों उगाते हैं रेत में एक किला ख़्वाहिशों का।
जादू की छड़ी का अभिशाप
एक दिन हमारी बदकिस्मती को बदल देता है सच में
कि हवा बनाती है सबसे मजबूत दीवार में सुराख और बह जाता है सारा सुख।
मैं एक सपेरा बन कर
वियोग की धुन को बजाता हूँ, सन्यास की चाशनी में लपेट कर
और हवा को वशीभूत करके क़ैद कर लेता हूँ पिटारे में।
हवा रूआँसा होकर हो जाती है चुप
जैसे कोई सोलह साल की लड़की, उदास बैठी हो खिड़की में।
इस भारी मौसम को अलविदा कहने के लिए
मैं उठा देता हूँ बेरुखी का ढक्कन ज़ार में क़ैद सीली हसरतों के मुंह से।
हवा अपनी गिरह को खोल कर बनाती है फंदा और चुन लेती है मेरी गरदन।
मैं किसी अरूप प्रेत की तरह गायब हो जाता हूँ जैसे मुट्ठी से रेत फिसल जाती है।
हवा मुझे खोज रही है साँय साँय करती हुई
मैं बुन रहा हूँ कोई नया इरादा उसे छका देने का
महबूबा पता नहीं लगी है किस काम में, ज़िंदगी जाने किस चीज़ का नाम है?
* * *
ये बात उस आदमी के बारे में है
जिसकी महबूबा उसकी पीठ के पीछे हैं
मगर वह मुड़ कर
उसे आइस पाइस नहीं कह सकता।
उसे छिपे रहने में क्या मजा है, इस सवाल की मनाही है।
मेरे खयाल से ये बात
उस औरत के बारे में भी हो सकती है
जो अपने महबूब को आवाज़ देती है
और वह जनाना कपड़ों के ढेर से उठता हुआ
कहता है मैं इधर ही हूँ।
वह अक्सर उधर से ही क्यों नुमाया होता है,
ऐसा पूछते ही ताअल्लुक बोझ बन जाता है।
वास्तव में साबुत करेक्टर होने की
जो बुनियादी बातें
हमें सिखायी जाने की कोशिशें की गई थी
उनका असल चेहरा
किसी कुंठित कारीगर का बनाया हुआ लगता है।
मैं छठे माले के घर से देख रहा हूँ
कि हद दर्ज़े की पहरेदारी में बड़े हुये
एक सफ़ेद फूलों वाले पेड़ के तने में
लोहे के ट्री गार्ड ने अपने दाँत गड़ा रखे हैं
पहले ये दाँत मवेशियों के लिए बनाए गए थे।
लोग पेड़ के फूलों पर एक नज़र डालते हैं
और आगे बढ़ जाते हैं, बिना सुख दुख पूछे।
जिस तरह पीठ पीछे से महबूबा आवाज़ नहीं देती
जिस तरह जनाना कपड़ों से महबूब बाज़ नहीं आता
जिस तरह बुनियादी बातों के पीछे का मकसद कुछ और है
जिस तरह एक ट्री गार्ड अपने ही अपने ही शरणार्थी का फंदा बन जाता है
उसी तरह ज़िंदगी हमसे चाहती क्या है और बताती क्या
ये कोई जान नहीं सकता है।
* * *
सन्यास की चाशनी में वियोग की धुन
मैं एक सूप बनाता हूँ
हवा की गिरह को खोल कर
समय की तीलियों पर रखता हूँ, अब तक का कमाया हुआ
फिर आहिस्ता से ज़मीन और आसमान के बीच लटका कर
अफसोस और खुशी के पलों को छांटता हूँ, ज़िंदगी की तंग चादर पर।
हवा बन जाती है बच्चों के खेल की उड़न तश्तरी
मैं एक कुत्ते की तरह दौड़ कर
पकड़ लेना चाहता हूँ उसे किसी चिड़िया की मानिंद
मेरे मुंह में बची रह जाती है, सरसराहट बीती हुई उम्र की।
मैं एक महबूबा चुनता हूँ
खुशियों से बेखबर, अक्वेरियम में बंद सुनहरी मछली जैसी
या शायद गरमी के दिनों में रेगिस्तान में
सुर्ख-पीले फूलों से भरे रोहिड़े के खूबसूरत पेड़ की तरह।
हम दोनों उगाते हैं रेत में एक किला ख़्वाहिशों का।
जादू की छड़ी का अभिशाप
एक दिन हमारी बदकिस्मती को बदल देता है सच में
कि हवा बनाती है सबसे मजबूत दीवार में सुराख और बह जाता है सारा सुख।
मैं एक सपेरा बन कर
वियोग की धुन को बजाता हूँ, सन्यास की चाशनी में लपेट कर
और हवा को वशीभूत करके क़ैद कर लेता हूँ पिटारे में।
हवा रूआँसा होकर हो जाती है चुप
जैसे कोई सोलह साल की लड़की, उदास बैठी हो खिड़की में।
इस भारी मौसम को अलविदा कहने के लिए
मैं उठा देता हूँ बेरुखी का ढक्कन ज़ार में क़ैद सीली हसरतों के मुंह से।
हवा अपनी गिरह को खोल कर बनाती है फंदा और चुन लेती है मेरी गरदन।
मैं किसी अरूप प्रेत की तरह गायब हो जाता हूँ जैसे मुट्ठी से रेत फिसल जाती है।
हवा मुझे खोज रही है साँय साँय करती हुई
मैं बुन रहा हूँ कोई नया इरादा उसे छका देने का
महबूबा पता नहीं लगी है किस काम में, ज़िंदगी जाने किस चीज़ का नाम है?
* * *