घर में एक पेड़ है। हर सुबह एक चिड़िया आती है। वह सबसे ऊंची शाख पर झूलती है। शाख लचकती है। चिड़िया इस लचक के साथ गाना गाती है। मैं दोनों को देखता हूँ।
अचानक मोगरे का नया फूल मुझसे पूछता है। "तुम क्या देख रहे हो?" मैं अचरज से भरा हुआ मोगरे के फूल से पूछता हूँ- "तुमको कैसे पता कि मैं कुछ देख रहा हूँ?"
"तो क्या कर रहे हो?"
"मैं सुन रहा हूँ"
"क्या चिड़िया का गाना?"
"नहीं उसकी बातें"
"अच्छा तुमको कैसे समझ आता है कि वह गा नहीं रही।"
"मुझे नहीं समझ आता मगर मेरे भीतर एक चिड़िया है वह समझती है"
मोगरे के नए फूल ने अपनी ठोडी पर एक पत्ती रखी और कहा- "तो बताओ चिड़िया ने क्या कहा?"
मैने कहा- "चिड़िया पेड़ से कहती है कि तुम हर सुबह बड़ा होने का स्वप्न लिए जागते हो।"
मोगरे का फूल कुछ सोचने लगा तभी एक बुलबुल मुझसे बोली- "तुम उसकी बातें नहीं समझते हो"
मैंने पूछा- "तुमको कैसे पता?"
"इसलिए कि मैंने सुना था चिड़िया रोज़ उससे कहती है कि तुम पेड़ नहीं हो। तुम एक झूला हो"
मोगरे का फूल चुप था। मैं भी चुप हो गया। बुलबुल भी इससे आगे कुछ न बोली।
सुबह की हवा में मोगरे की सुगन्ध थी। बुलबुल की रंगत घुली थी। तभी पेड़ की शाख तेज़ी से लहराई। चिड़िया उड़ी और हमारे पास टंगे एक मृदा पात्र पर बैठ गयी। उसमें भरा पानी कुछ बूंदें बनकर हम सबकी ओर छलका।
चिड़िया ने कहा- "मैं पेड़ से कहती हूँ कि तुम एक चिड़िया हो और मैं एक शाख हूँ जो तुमको गुदगुदी करने आती है।"
जून के आख़िरी दिनों में बरसात होती रही। रेगिस्तान भीगने की गमक से भरा रहा। कभी फुहार गिरती तो याद आता कि किसके साथ भीगे थे। मोगरा महकता तो उस घर की याद आती जहाँ बंदनवार की तरह बेल झूमती थी। यादें हर बात में थी। अचानक गर्म दिन आ जाये और हवा के साथ धूल उड़ने लगे तो उस मौसम की भी यादें बेहिसाब हैं।
दोपहर तक मोगरे का फूल दूजे फूलों में खो गया। बुलबुल उड़ गयी। चिड़िया दो फुर्र की आवाज़ करते हवा में सर्फिंग करते हुए उड़ गई। बादल गायब हो गया।
मैंने रेत पर लिखा "प्रेम"
परसों शाम उसने मुड़कर देखा था। आज हमने एक से रंग पहने मगर हम नहीं समझते कि कुदरत क्या कहती है? या समझने लायक कोई बात ही नहीं होती और हम बेवजह सोचते रहते हैं। जैसे चिड़िया, बुलबुल, मोगरे का नन्हा फूल वही बात समझता है, जो वो अपने दिल में सोचता है।
और मैं? जाने दें।
प्रेम की भाषा नहीं होती केवल सुगन्ध होती है।