कभी हम इस तरह प्यार में पड़ जाते हैं कि हर समय उनके साथ मिलते हैं। मेरे दफ़्तर की टेबल, मेरे अधलेटे पढ़ने का बिस्तर और जिन कोनों में बैठकर लिखता हूँ उनके आस पास हमेशा पेंसिलें, इरेजर और शार्पनर रहते हैं।
स्कूल जाने के पहले-पहले दिनों में इन्होंने मुझे मोह लिया था। इतने लम्बे जीवन में कोई गैज़ेट इसको रिप्लेस नहीं कर पाया।
कभी अचानक तुम सामने आकर बैठ जाओ तब मैं हैरत से भरकर इनको भूल जाता हूँ। तुम्हारे जाने के बाद ख़याल आता है कि तुमको ठीक से देखा ही नहीं।
बुझ चुकी शाम में अंगुलियां बहुत देर तक पेंसिल से खेलती रहती हैं। मन सोचता रहता है कि क्या ऐसा लिख दूँ -"तुम आया करो" फिर होंठ मुस्कुरा उठते हैं कि तुम कब बोले जो अब कुछ बोलोगे।
* * *
इन रातों में बादल छाये रहते हैं. कुछ एक रात से चाँद के होने का अहसास आता है और बुझ जाता है. रात के दस बजे के आस-पास पड़ोस की छत पर रखे रेडियो की आवाज़ ज़रा तेज़ हो जाती है. फ़िल्मी गीत बजने लगते हैं.
गीत के ख़याल में गुम होकर अक्सर हम कुछ सोचने लगते हैं. किसी रेस्तरां में दोपहर के खाने की याद, किसी सिटी बस के सफ़र में हुई अबखाई, कभी बिस्तर में पड़े हुए गीत की आवाज़ सुनते हुए जागना, कभी किसी को लिखकर भेजे गीत के मुखड़े, कभी बेहद बेसुरे रेंके गए गीत, कभी किसी को गाते हुए चुप सुनने की शाम और भी जाने क्या-क्या याद आता है.
मैं कभी-कभी उसके बारे में सोचता हूँ जो रेडियो पर गीत प्ले कर रहा होता है.
* * *
अमलतास के पीले फूलों के पार स्याह बादल देखते हुए. २० जुलाई २०१८ जेएनयू परिसर, नई दिल्ली.