जैसलमेर में फतेहगढ़ में कोडा गांव से लौटते हुए झीझनियाली में ये वैन दिखी। इसमें एक बड़ा स्क्रीन लगा था। जब हमारी कार वैन के पास पहुंची तब स्क्रीन पर राजस्थानी वेशभूषा में कुछ लोग और खलिहान दिखाई दिए। वैन के आगे भारत के मन की बात लिखा था।
इसे देखते ही मुझे फ़िल्म प्रभाग और दृश्य एवं श्रव्य प्रचार विभाग की ओर से अस्सी के दशक में दिखाई जाने वाली फ़िल्म याद आने लगी। एक जीप में कुछ लोग आते। प्रोजेक्टर लगता। सफेद पर्दा लगाया जाता। उस पर कोई देशभक्ति या विकास पर बनी फ़िल्म दिखाई जाती। हम बच्चे कौतूहल से उस दिन का इंतज़ार करते। लेकिन वह दिन बरसों में कभी आता।
मैंने केवल दो फ़िल्म देखी थी। एक थी देव आनंद साहब की हम दोनों दूजी के बारे में ठीक से याद न रहा कि वह किस बारे में थी।
अब हर हाथ में मोबाइल है। सस्ता साहित्य, द्विअर्थी गीत, मार-काट और प्राकृतिक आपदाओं के दृश्य सबकुछ यूट्यूब पर उपलब्ध है। फ़िल्म और टीवी सीरियल का तो कहना ही क्या? वे यूट्यूब पर नहीं तो किसी टोरेंट के मार्फ़त डाउनलोड होकर एक मोबाइल से दूजे मोबाइल में आगे बढ़ते रहते हैं। ऐसे में इस वैन को देखकर मेरे मन में प्रश्न जगा कि क्या सचमुच ये प्रचार किसी के मन पर कोई असर छोड़ पायेगा। जैसा हम पर कभी पड़ा करता था।
आज रेगिस्तान के इन दूरस्थ गाँवों में रहने वाला हर व्यक्ति इतना सूचना सम्पन्न है कि वह किसी को सुन ले तो सुन ले मगर गुनता अपने मन की ही है। शहर क़स्बे का आदमी तो फिर भी कुछ दौड़भाग में लगा रहता है लेकिन गांव के लोग इतने समृद्ध हैं कि वे राजनीतिक बहस की चालों में इस तरह फिणसिया लगाते हैं कि तेज़ तर्रार गट्टे खाता हुआ दस कदम आगे धूल झाड़ता हुआ मिलता है।
कल एक मित्र ने कहा- "इकहत्तर की लड़ाई तक तो भारत सरकार भूल गयी थी कि बाड़मेर जैसलमेर भी इसी देश का हिस्सा है।"
मैंने उनको याद दिलाया कि वे भी क्या मज़े के दिन थे जब बरातें बॉर्डर पार जाती और दुल्हन ब्याह लाती थी। ये कोई बहुत पुरानी बात नहीं है। नब्बे के आस पास फेंसिंग होने से ये सिलसिला रुका।
इसी बातचीत में एक मुसलमान लड़ाका याद किया गया जिसने पाकिस्तान में रह रहे राजपूतों के भारत में रहने वाले राजपूतों के अनगिनत ब्याह सम्बन्ध करवाये।
हम अपने बचपन से इस द्रुत गति से दूर आ गए हैं कि यकीन नहीं होता तीस चालीस बरस ही हुए हैं। देखते-देखते मंज़र बदल गया है।