एक पिता के लिए सबसे महत्वपूर्ण काम ये है कि वह अपने बच्चों की माँ से प्रेम करे। ~ थियोडोर हेज़बर्ग
ड्राइंग रूम की सेंटर टेबल पर अकसर कैरम जमा रहता। माँ, पापा और भाई माने सब लोग खेलते थे। बोरिक ऐसिड की सफेदी यहाँ वहाँ बिखरी रहती। शाम को ये कैरम बाहर खुले में आ जाता। इस खेल का आनंद बहुत देर तक चलता। कभी मानु आकर कैरम के बीच में बैठ जाती। इसे खेल के बीच का टी ब्रेक मान लिया जाता। खेल फिर से चल पड़ता। इस खेल के समापन का एक रिवाज सा बन गया था कि माँ की टीम हारने लगती तब माँ कैरम को एक तरफ उठाकर सारी गोटियाँ बिखेर देती।
एक ठसक और झूठे रूसने के साथ माँ रसोई की ओर चल पड़ती। पिताजी उनको मनाने के लिए राजसी सम्बोधन लिए पीछे चल पड़ते।
घर के भीतर के इन दृश्यों से इतर बाहर के संसार में पिता एक शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता और बेहद गंभीर व्यक्ति थे। उन्हें किसी प्रहसन, हंसी-ठिठोली और निंदा में सम्मिलित किसी ने नहीं पाया। वे इस तरह के स्वभाव के व्यक्तियों से यथोचित दूरी बनाए रखते थे।
जब तीनों बच्चों की नौकरी लग गयी। घर में बहुएँ आ गईं तब उन्होने अपनी इच्छा से नौकरी से सेवानिवृति ले ली। अपने प्रिय लोगों के साथ मिलकर एक एनजीओ बनाया। उसके लिए काम करते रहते थे। वे बहुत ख़ुश रहते थे। उनके चेहरे पर सेवा करने का संतोष साफ पढ़ा जा सकता था। इस तरह सेवारत रहने और सेवानिवृति के बाद भी वे दिन भर घर से बाहर ही रहते थे।
उनके घर में आते ही एक गाम्भीर्य साथ चला आता था। वे कुछ कहते नहीं थे लेकिन सब लोग एक बारगी कड़े अनुशासन में आ जाते। ये अनुशासन कभी-कभी घर में एक अनावश्यक चुप्पी भर देता था। इसलिए ही शायद कैरम की बाज़ियाँ सबको प्रिय थी। उस समय हम एक अनुशासित परिवार होने के स्थान पर खेल के दो दल हुआ करते थे।
इधर हर गोत्र का एक नख माना जाता है। इसका अर्थ है कि पूर्वज किस खानदान या वंश से संबंध रखते थे। जाटों में सारण गोत्र को भाटी गोत्र से मानते हैं। मुझे इसके बारे में बहुत पता नहीं है लेकिन पिताजी माँ के रूठने पर कहते थे "भाटियों रो रूसणों भारी" वे कभी-कभी माँ को आवाज़ लगाते थे "भाटी साब। कहाँ हो"
इस तरह एक बेहद गंभीर व्यक्ति ने हमारी माँ के साथ आप और साहब का सम्बोधन रखा। उनके मन को मनाने के लिए हर बार अथक लगे रहे।
हर पिता अपने दायित्वों के निर्वहन में कोई कसर नहीं छोड़ता, अपने सामर्थ्य से बढ़कर अपने परिवार के लिए कार्य करता है। पिता हम भाइयों को पढ़ाते रहे। हमें सही गलत समझाते रहे। हम जो बन सके वह सब उन्होने अपने हाथों से अपनी आँखों के सामने बनाया और जब हम दूर थे तब उन्होने अपने विश्वास से हमारी गढ़त जारी रखी।
लेकिन उन्होने हमारी माँ से असीम प्रेम किया ये सबसे बड़ी बात है।
* * *
लिखते समय मुसकुराता रहा लेकिन आखिरी पंक्ति तक आते ही आँखें भर आई हैं। पिताजी होते तो कहते- "तुम बड़े हो गए हो। अब तुमको रोने में मुस्कुराने का हुनर आना चाहिए।"
* * *
पिताजी की अधिकतर तस्वीरें साफ़ा-माला पहने हुये। सामाजिक कार्यक्रम में भागीदारी करते या इसी तरह के आयोजनों की हैं। उनकी ये तस्वीर उनके गंभीर स्वभाव से अलग है। इसे आर के पूनीया सर ने खींचा था। शायद बीबीएल भटनागर सर ने अपना चश्मा उनको पहनने को दिया होगा। या हो सकता है पिताजी ने कभी किसी यात्रा में ख़ुद के लिए चश्मा खरीद लिया हो। हालांकि मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होगा कि वे अपने लिए कभी धूप का चश्मा खरीद सकते हैं।
* * *
आपके पिता हैं तो उनको एक बार मुस्कुराकर देख आइये। उनको एक कॉल कर लीजिये। मुझे महसूस होगा कि मैंने उनसे बात कर ली, मैंने उनको देख लिया।
* * *
कोई कहीं नहीं जाता। सब यहीं रहते हैं दिल के पहलू में या उसके अंदर। बहुत सारा प्यार।
* * *