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बताशे जितनी पूरी

"आभा दी फुचका" मेरे ऐसा कहते ही आभा मुस्कुराने लगी।

मैंने पूछा- "कुछ याद आई?" आभा ने कहा "हाँ आपकी दोस्त। उनकी क्या ख़बर है?"

मैंने कहा- "पता नहीं। कहीं रंग भरी अंगुलियाँ लिए ड्राइंग बोर्ड के सामने खड़ी होगी या किसी आर्ट गेलेरी में अपनी पेंटिंग्स बेच रही होगी।"

आभा ने कहा- "आपको उनके बारे में पता करना चाहिए।"

कैसे कोई एक बात किसी की हमेशा के लिए याद रह जाती है। उस बात के बहाने उसे हर बार याद किया जाता है। फुचका हमारे लिए नया शब्द था। बांग्ला लोग पानी पूरी को फुचका कहते हैं। हमारे लिए तो पानी पूरी भी एक नया शब्द था। पहले पहल जब भी इसके बारे में सुना तब ये पानी पताशा था।

रेगिस्तान के लोगों के पास मखाणे और बताशे ही केंडी के रूप में हुआ करते थे। इन्हें बरसों बिना किसी विशेष रखरखाव के संभाला जा सकता था। दादी की पेटी में, नाना के कुर्ते के खूंजे में, मेहमानों की थेलियों में, विवाह समारोहों के अवसर पर कट्टों में भरे हुये मखाणे और बताशे मिला करते थे।

ये बताशे ही थे जिनको स्थानीय बोली ने पताशे कर दिया था। पानी पूरी वाली, पूरी भी लगभग बताशे जितनी ही थी। इसलिए वह पताशा हो गई।

बाड़मेर में पहले पहल कौन इसे बेचने लगा था, ये मेरे लिए याद करना कठिन है। लेकिन इतना ज़रूर है कि मैं पाणी-पताशे को अपनी किशोरवय में जान चुका था। एक बहन को इसका बड़ा चाव था। अक्सर उसी बहन ने घर से बाहर के संसार के रास्ते खोलने में सेनापति की भूमिका निभाई थी।

उसके कारनामे अदम्य साहस से भरे होते थे। जैसे शिवरात्रि के अवसर पर भांग वाली ठंडाई मंगवाना। "भाई ला तो देखें क्या होता है?" उसी बहन ने पानी पूरी को "जाट" घर में प्रवेश करवाया था। जाटों का क्या वास्ता ऐसी चीजों से? हमारे लिए तो दुपहरी का भोजन सूखी हुई रोटियाँ और दही में कच्ची लाल मिर्च और नमक होता था।

हालांकि अब भी पानी पूरी हमारे लाल मिर्च वाले दही और सूखी रोटी को कोई चुनौती नहीं दे पाई है। हमारे बचपन और बच्चों के बचपन के खानपान में इतना अंतर आया कि मानु और तनु की दुपहरी में दही के साथ सूखी रोटियों की जगह आलू पापड़ी ने ले ली। ये भोजन उनकी प्रिय दुपहरी हुआ करती थी।

अब रेगिस्तान में कॉकरोच बहुत हो गए हैं। पहले किसी कठोन्तरे में किणारी माने झींगुर अवश्य मिल जाते थे लेकिन कॉकरोच न थे। ये छोटे बड़े तिलचट्टे जाने किस रास्ते रेगिस्तान चले आए हैं। मुझे लगता है कि मंडियों में होने वाली आवक के साथ आए और सब घरों में घुस बैठे। इन तिलचट्टों के कारण अब सूखी रोटियों को खाने से मनाही हो गयी है। कुछ एक स्वाद के दीवाने चटोरे लोग अब भी सूखी रोटियों को गैस चूल्हे पर सेक कर खाने से बाज नहीं आते।

ये चटोरी चीज़ें तेज़ी से हमारे जातिगत ढांचे की भोजन परंपरा को चुनौती दे रही है। मैं इन चटोरी चीजों का आभारी हूँ। अब पापड़ खाने वाले बनिए नहीं कहलाते। पापड़ खाण पदमणा होया, कहावत भी पीछे छूटती जा रही है। 
* * *

तस्वीर पार्टनर की है।

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