रेगिस्तानी साज़ों के सुर अक्सर पीछे छूट जाते थे। कोई जोगन मगर कहीं औचक आवाज़ देकर रोक लेती थी। कि जो जाना था, वो नाकाफी था कि जो होना है, वह बहुत कुछ है। * * * मैं कहाँ कभी एक सी दिखती हूँ मगर तुम उसके जैसे दिखते हो। मैं जलती दियासलाई को बुझाना भूल जाता हूँ। * * * मुझे हर तौर से दिखो मुझे हर तौर से देखो। बस यही एक बात थी, जिसमें मोहब्बत का अंदेशा था। * * * मैं उसे देखने के बाद बहुत देर तक देखता रहा। वो अगर अजनबी था तो इस तरह कौन अजनबी को देखता होगा? * * * अचानक उसकी एक तस्वीर भर देखकर देर तक सोचता रहा कि ये मुझको क्या होता है। * * * कल मिलना ये कहा था या नहीं कहा था केवल उस रास्ते के वनफूल जानते थे। मेरी याद में एक तिल था जो शायद मेरा था और शायद उससे लेना था। * * * उसे कैसे पता होगा मैं वनीली घास की तरह चुभ जाना चाहता हूँ मैं वनीली घास की तरह बिछ जाना चाहता हूँ। फिर सोचकर मुस्कुराता हूँ कि जोगी क्या नहीं जानते। * * * मुझे मालूम है कि रास्ता गुज़रता जाता है कुछ भी रुकता नहीं है। एक मैं और दूजा कोई नहीं है। फिर ये कौन था, हज़ार चहरे एक चहरे में बसाये हुए। * * * मैं अपनी हथेलियों में उलट पुल...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]