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Showing posts from 2020

वो नाकाफी था

रेगिस्तानी साज़ों के सुर अक्सर पीछे छूट जाते थे। कोई जोगन मगर कहीं औचक आवाज़ देकर रोक लेती थी। कि जो जाना था, वो नाकाफी था कि जो होना है, वह बहुत कुछ है। * * * मैं कहाँ कभी एक सी दिखती हूँ मगर तुम उसके जैसे दिखते हो। मैं जलती दियासलाई को बुझाना भूल जाता हूँ। * * * मुझे हर तौर से दिखो मुझे हर तौर से देखो। बस यही एक बात थी, जिसमें मोहब्बत का अंदेशा था। * * * मैं उसे देखने के बाद बहुत देर तक देखता रहा। वो अगर अजनबी था तो इस तरह कौन अजनबी को देखता होगा? * * * अचानक उसकी एक तस्वीर भर देखकर देर तक सोचता रहा कि ये मुझको क्या होता है। * * * कल मिलना ये कहा था या नहीं कहा था केवल उस रास्ते के वनफूल जानते थे। मेरी याद में एक तिल था जो शायद मेरा था और शायद उससे लेना था। * * * उसे कैसे पता होगा मैं वनीली घास की तरह चुभ जाना चाहता हूँ मैं वनीली घास की तरह बिछ जाना चाहता हूँ। फिर सोचकर मुस्कुराता हूँ कि जोगी क्या नहीं जानते। * * * मुझे मालूम है कि रास्ता गुज़रता जाता है कुछ भी रुकता नहीं है। एक मैं और दूजा कोई नहीं है। फिर ये कौन था, हज़ार चहरे एक चहरे में बसाये हुए। * * * मैं अपनी हथेलियों में उलट पुल...

आवाज़ दूँ या नहीं

रोज़ ज़िन्दगी के कुछ ड्राफ्ट मिट जाते हैं मगर याद में थोड़े से बचे रह जाते हैं। कोई पत्ता शाख से गिरता है तो शायद नहीं सोचता कि ये गिरना किसी ड्राफ्ट का हिस्सा था। ऐसे ही शाख पर बने रहना भी शायद प्लांड न था। तो क्या ज़िन्दगी बिना किसी प्लान के मिलती है। सुबह आँख खुलने तक स्वप्न टूट चुके होते हैं मगर थोड़े से बचे रह जाते हैं। कभी-कभी थोड़े से कुछ ज़्यादा। एक तरतीब और सिलसिले से उनका ड्राफ्ट बन जाता है। बीत चुके स्वप्न का ड्राफ्ट। सूनी सड़क, खुले आहाते और नज़र के सामने लगभग बियाबान कैनवास को देखते हुए ख़याल आता है कि किसी सब्ज़े से चला आ रहा हूँ। अब तक पीले सघन पतझड़ तक पहुंच चुका हूँ। मगर। कितने सारे ड्राफ्ट अब भी बचे हुए हैं। मेरी पीठ के पीछे बैठी एक चिड़िया सोचती है कि आवाज़ दूँ या नहीं। वह औचक सामने आकर आवाज़ देती है। इसके बाद दिखती है लेकिन कभी कंधे पर नहीं बैठती। वह अब भी है मगर समय एक इरेजर की तरह ड्राफ्ट पर घूम रहा है। जाने क्यों लगता है कि वह जिस तरह औचक सामने आई थी उसी तरह कभी औचक हम घंटो साथ बैठे रहेंगे। विदेशी बबूल की पत्तियां बरसात की तरह झड़ती है। मैं अपनी बांह पर पड़ी पत्तियां नहीं झटकता। ...

किस तरह, किस के प्रेम में पड़े

मैंने कहा इस बार हम दोनों एक जैसे दो जैकेट खरीदेंगे। तुमने ऐसे देखा जैसे हमेशा के लिए हम एक होने वाले हैं। * * * जैकेट सोफ़े पर ऐसे पड़ा है जैसे तुम अभी-अभी इसे उतार कर कहीं गए हो। वही जैकेट जो हमको एक साथ खरीदना था मगर अभी हम एक साथ बाज़ार नहीं जा पाए हैं। * * * अचानक रम की कुछ बूंदें जैकेट पर गिर पड़ी तो याद आया। कि वे तुम्हारे होंठ थे और वह एक ऐसी जगह थी, जहां बहुत लोग थे। * * * तुमने अनेक वाकये बताये कि किस तरह किस के प्रेम में पड़े। मुझे कभी न लगा कि तुम्हारा प्रेम कोई उतरी हुई शै है। एक पुराने जैकेट से मुझे दूजों की ख़ुशबू कभी नहीं आई। * * * महीने भर बाद हम सीपी के गलियारों में घूम रहे होते। मगर सब बदल गया है अब खिड़की से सूनी सड़कें दिखती हैं कि अब कौन जाता होगा जैकेट खरीदने? * * * कोई काला जादू नहीं होता। बस कुछ एक बार हम मेट्रो स्टेशन की किसी खिड़की के पास खड़े सोचते हैं कि सीढियां उतर जाएं। कुछ एक बार सोचते हैं कि सिगरेट बुझा दें और देख आएं कि कहीं तुम इंतज़ार में तो नहीं खड़े। * * * मुझे नहीं पता कि दूर होकर कैसे जिया जाता है। मैंने कभी-कभी ये महसूस किया है कि हम कहीं भी होते मगर एक ...

कोई बात है मगर क्या?

मैं नहीं समझ पाता कि बात क्या है। उसी क्षण उलझन में गिर जाता हूँ कि अगर बात है तो मालूम होनी चाहिए मगर बहुत सोचने के बाद भी कोई बात समझ नहीं आती। दफ़्तर के खाली कमरे में एसी चल रहा होता है मगर बेचैनी होने लगती है। मैं दाएं-बाएं झांकता हूँ। सोचता हूँ क्या करूँ। बस इतना भर समझ आता है कि अब यहां दो क्षण भी बैठा नहीं जा सकता। मोबाइल का चार्जर और हैंड्सफ्री समेटता हुआ बाहर निकल आता हूँ। खुले आकाश तले सीढ़ियों पर खड़ा हुआ चौतरफ़ देखता हूँ। सब ठहरा हुआ है। पेड़ की छांव में खड़े स्कूटर के पास रुकता हूँ। मैं चिड़ियों की आवाज़ें सुनना चाहता हूँ। चिड़ियों की आवाज़ के लिए इंतज़ार नहीं कर पाता। रोज़ कोई सपना, इच्छा, चाहना या आशा कहीं खो जाती है। मैं जानता हूँ कि जीवन अत्यंत साधारण घटनाओं से बना होता है। इसमें अद्भुत और आश्चर्यचकित करने वाली ख़ुशी नहीं होती। इसमें ही रोज़ खप जाना होता है। लेकिन इस खपने को सोचने से हर बार बचा नहीं जा सकता। कभी-कभी कितने ही बीते हुए दिन एक अफ़सोस की तरह सामने आ खड़े होते हैं। जैसे एक-एक कर पत्ते झड़ रहे हैं। सब कुछ बीत रहा है। चाहना और प्रत्याशा से भरे जीवन का कॉकटेल बहुत भारी होता ह...

ठहरी हुई सतर

जीवन भीतर से तरंगित होता है। कभी-कभी उसकी आवृति इतनी क्षीण होती है कि सुनने के लिए ध्यान लगाना पड़ता है। सुस्त बाज़ार में खाली पड़ी नाई की दुकान, किराणे की पेढ़ी के आगे सूनापन और चाय की थड़ी की बैंचों पर पसरी चुप्पी दिखाई देती है। असल में जीवन का बाजा तब भी बज रहा होता है। सूनी बैंचों पर बैठे हुए, दुकानों के आगे बने ओटों पर ज़र्दे को थपकी देते और बीड़ी सुलगाते लोगों की स्मृति ठीक से बुझ नहीं पाती उससे पहले दृश्य में नए चेहरे समा जाते हैं। एक ठहरी हुई सतर पर कुछ नए लफ्ज़ गिरते हैं और वह आगे बढ़ जाती है। मैं ऐसे दृश्यों को शब्दों में बांध लेना चाहता हूँ। दीवार पर अशुद्ध वर्तनी में लिखे अनुरोध पढ़ते हुए देखना चाहता हूँ कि पिछली बरसात से अब तक दीवार पर स्याह रंग कितना बढ़ गया है। सड़क पर उड़ते कागज़ के कप, बुझी हुई बीड़ियाँ, सिगरेट के टोटे और पान मसालों की पन्नियां समय के निशान हैं। संझा होते ही इनको बुहार दिया जाता है तब लगता है जैसे किसी गहरी झपकी से जाग गया हूँ। खुद को देखता हूँ कि मैं बिल्कुल नया हूँ। मैं जो वहीं बैठा था। समय जो निरन्तर बीत रहा था। जीवन जो अपनी उम्र में एक टिक आगे बढ़ गया था। कुछ भी ठ...

लेकिन नियति।

सब ख़राब और अच्छे काम नियति के खानों में रखे जा सकते थे। सब योजनाओं को नियति के हवाले किया जा सकता था। इससे भी कड़ी बात थी कि हर सम्पन्न कार्य पर नियति की मोहर लग जाना। इससे इनकार न कर पाने की बेबसी और अधिक बुरी थी। कहीं कोई उदास ख़्वाब लिए चुप बैठे होते। प्यार से ऊबकर प्यार तलाशते जैसे तम्बाकू से ऊबकर फिर से तम्बाकू सुलगाते। कहीं कोई आहट होती दिल पहले ही मान लेता कि ये वो नहीं है। समय का कारवां गुज़रता रहता। बस।

ये मैं ख़ुद नहीं जानता

कभी-कभी स्वप्न में जेबें छुहारों से भरी होती हैं जैसे कभी-कभी दिल उसकी चाहना से भर जाता है। तन्हाई में कच्ची दीवार पर बैठा रहता। दोपहर में लम्बी धूपिया धुन बजती रहती। किसी शाम मुंडेर से नीचे पांव लटकाये हुए आंखें गली को देखती थी। सूनेपन में जब कोई दिख जाता तो आंखें कहीं और देखने लगती। तपती खाली दोपहर, सूनी सांझ और तारों भरी नीरव रात किसी की मोहब्बत कैसे हो सकती है? मगर थी। एक बार दिल किसी काम में लग गया। खेल, जुआ या मोहब्बत, तो फिर वह अपना कुछ नहीं सोचता था। दिल शुरुआत करना तो जानता था मगर सलीके से कुछ भी सम्पन्न करना सीख नहीं पाया। यही खामी अकसर एक ख़ूबी बन जाती थी कि जिंदगी को गुज़रना होता है वह गुज़रती रहती थी। आज दिल भर आया। चाहने वालों से और जिनको चाहा। फिर उसी कच्ची दीवार, उसी मुंडेर, उसी नीरव रात के पास लौट जाने का मन हुआ। मगर वह किशोर बहुत पीछे छूट गया है, जिसके पास ये सब था। अब एक बेहद मीठी शराब है। सुरूर तो होता है मगर कोई बात गुम है। जैसे जेबों से सब छुहारे गिर गए हों। मैं बेहद पुरानी व्हिस्की या छुहारों से कितना प्रेम करता हूँ, ये मैं ख़ुद नहीं जानता। जैसे होना। तुम रहना। * * *

इक सिहरन

सर्द रात में बेहद ठंडे लिहाफ के भीतर शैतान पूछता है, अब चूम लें? लिहाफ में कोई नहीं होता शैतान के सिवा। उसकी पीठ के पीछे खड़ी कमसिन लड़की शाम ढलने से पहले जा चुकी होती है। शैतान जिसे अपनी प्रेमिका नहीं कह पाता। शैतान मुस्कुराता है उसके होने के लिए, उसका होना ज़रूरी नहीं है। * * * कितने बदन कितने अवसर कितनी जगहें थीं। शैतान को कुछ याद नहीं सिवा इसके कि उसने कहा था सब पूछ कर करोगे? जबकि शैतान कुछ न करता था न प्यार, न इंतज़ार। * * * कितने ही झूठ बोले कितने ही बहाने बनाये कितना ही यकीन दिलाया। मगर शैतान को कोई असर न था कि वह जानता था सबकी अपनी एक ज़िन्दगी होती है। वो ज़िन्दगी जिसमें किसी के साथ सोना गुनाह गिना जाता है। * * * अगर शैतान उसे कह देता अगर शैतान उससे पूछ लेता कि प्रेम के बारे में क्या ख़याल है? इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता न वह कह पाती, न शैतान उसका नाम पुकार पाता। * * * शैतान ने कहा हवस पर प्रेम का वर्क अच्छा नहीं होता इससे दोनों का लुत्फ़ मर जाता है। * * * काश कि वह अभी तक सोई न हो काश कि वह सोच रही हो कि शैतान से कभी न कहूंगी कि प्यार है। * * * शैतान की प्रेमिका कोई वैद्य ही होगी इसलिए कि...

कभी दूर तक साथ पैदल चलने

कुर्सी पर बैठे, आंगन में पैर फैलाये बेसबब आसमान देखते जाना। कभी बहुत महीनों बाद कहीं जाने का सोचना। किसी मुलाक़ात का ख़याल आना। कहीं होकर कहीं न होना सोचकर मन मुस्कुराते जाना। कहीं संजीदा शाम गुज़ार देने, कभी दूर तक साथ पैदल चलने और कभी अब तक का सबकुछ भूल जीने का ख़याल कितना अच्छा होता। रात देर तक जागना। सुबह अलसाये पड़े रहना। लेकिन कभी-कभी वक़्त इस तरह ठहर जाता है जैसे किसी पुरानी तस्वीर के सामने खड़े हो गए हैं।

जालीदार रोशनी के पास

आंखों के आगे एक स्याह पर्दा खिंच जाता। इसके क्षणभर बाद रोशनी की लकीरें उग आती। ऐसा होना बहुत जादुई था। आंखों को सबकुछ साफ दिखने लगे, उससे पहले मैं आंखें बंद कर लेता था। बंद आंखों में मुझे पत्थर पर नक्काशी से बनाई गई जाली से छनकर आती रोशनी दिखती थी। दरीचे के भीतर कोई बैठा दिखता था। उस स्याह परछाई पर जहां रोशनी गिरती वह देखकर लगता कि यहां कोई बैठा है। उसका होना ऐसा होता कि जैसे अंधेरे की अनेक पतली बीम बदन के पार निकल रही है। परछाई कोई ऐसा आदमी या औरत है, जिसके बदन में अनेक सुराख हैं। अगर उनमें से किसी भी एक सुराख से भीतर जाय जाए तो सम्भव है, वहां अनेक रास्ते हैं। मैं उसके क़रीब जाने को बढ़ता हूँ तो हर कदम पर उसका आकार बदलता जाता है। रोशनी में चमकते बदन में स्याही के सुराख अपनी जगह बदलने लगते हैं मगर उसे कुछ नहीं होता। वह परछाई स्तब्ध कर देने जितनी स्थिर रहती है। उसे इतना स्थिर जानकर मैं सहमने लगता हूँ। एक दीवार का सहारा लेकर खड़ा होता हूँ और सोचता हूँ कि उसके बदन को कौन जाहिर कर रहा है। स्याही या रोशनी? अगर केवल स्याही होती या केवल रोशनी होती तो क्या मैं उसे देख सकता था। शायद नहीं। इसलिए कि...

भूलने का सबसे बढ़िया तरीका

मैं एक बेचैन आदमी था इसलिए एक अच्छा जुआरी था। जुआ में कोई जीतता नहीं था एक दिन सब हार जाते थे। हर बार हारकर मैं जुआरी, सोता था ये तय करके कि अब कभी कोई जुआ न करूँगा मैं जागते ही जुआरियों को ढूंढने लगता था। मुझे मेरा अंजाम मालूम था एक दिन चौपड़ के बाहर पड़ा होऊंगा घिसे हुए पासे की तरह फटे ताश के पत्ते की तरह। लेकिन जुआ ज़िन्दगी को भूलने का सबसे बढ़िया तरीका है यही सोचकर कभी कोई अफ़सोस न हुआ। * * *

किसी अनिच्छा की तरह

जैसे पानी में छपाक की आवाज़ से अक्सर डर जाता हूँ और फिर किसी को तैरते देखकर अविराम उसे देखता रहता हूँ। दोपहर को झड़ते धूप के फाहे फूल हुए जाते थे। ये ऐतबार करने की बात न थी मगर बात तो यही थी। हर बार अचम्भे के पास शब्द नहीं होते। केवल एक विस्मित दृष्टि होती है। कभी-कभी अचम्भे के बाद उड़ते पंछियों के शोर से आकाश भर उठता है। सूने मकान की तरह जीवन, समय को बीतते हुए देखता खड़ा रहता है। खिड़कियों और खुले आलों से हवा बिन बोले बहती रहती है, उसी तरह समय गुज़रता है। एक ठहराव किसी अनिच्छा की तरह स्थायी घर लेता है। जीवन की अलमारियों की दराज़ों से चाहना गुम हो चुकी होती है। कभी विस्मय का अंकुरण हो जाता है। इसलिए कि ठहरा हुआ कुछ भी नहीं होता लेकिन हमेशा लगता है कि सब कुछ ठहर गया है। एक ऊब है, जिसने स्थायी घर कर लिया है। रंग घुलते जा रहे हैं मगर नया रंग नहीं दिखता। दोपहर में कोई छींटा गिरता है तब महसूस होता है कि ठहरा हुआ कुछ न था। एक निश्चित गति से सब बदल रहा था। अवसाद, निराशा, हताशा की सघन स्याही छंट रही होती है मगर समझ नहीं आता। असल में जीवन एक शिकारी है। वो घात लगाए किसी आड़ में हमारा इंतज़ार करता है। अचा...

बहुत पुरानी तस्वीर

फिर मचलने लग गई दिल में हज़ारों ख़्वाहिशें आप की तस्वीर एक बरसों पुरानी देख ली। परवेज़ मेहदी साहब गा रहे हैं। आधा चाँद है। हवा बन्द है। किसकी तस्वीर याद आई? मैं सोचता हूँ तो कोई तस्वीर याद नहीं आती। किसी की भी नहीं। हम जिनसे खफ़ा होकर बिछड़ जाते हैं। स्मृति से उनकी तस्वीरें भी मिट जाती हैं क्या? एक लड़का, कभी एक आदमी और कभी एक अधेड़ खड़ा याद आता है। वह जिस से मिलेगा या जिस से मिल चुका है, वो दिखाई नहीं देता। केवल चौराहे के लैम्पपोस्ट, दुकानों की निऑन लाइट्स, ऑटो वाले और कैब वाले दिखाई देते हैं। वे सब जिनसे कोई शिकवा न था, सब स्मृति में बचे हुए हैं। जैसे रास्ते, मॉल्स, कहवाघर और अजनबी बिस्तरों वाली होटेल्स। लेकिन वे जो मिले, जिनको गले लगाया, चूमा, जिनके साथ रहे। उनकी सूरतें तस्वीरों से क्यों गायब है। मैं अक्सर मुड़कर नहीं देखता। किसी के पीछे भी नहीं झांकता। इसलिए कि हर पल एक नया आदमी हमारे साथ होता है। वह कहां क्या जी चुका है, उससे मुझे कोई लगावट नहीं होती लेकिन वह जो अभी मेरे साथ है, कल कहाँ होगा? ये सोचकर अक्सर घबरा जाता हूँ। हालांकि पुरानी तस्वीरों की स्मृति से सब ज़िंदा चेहरे गायब हैं और मुझ...

तुम मेरे इंतज़ार में

मादक वनैली गन्ध और तुम्हारे नाम के बीच कितना कम फासला है। तीन दोपहरों से पसीना चू रहा था। मैं अपने अंगोछे से माथे का पसीना पौंछता था। उस अंगोछे से एक परिचित गन्ध आती थी। रंगों की गंध। मैं समझने लगता कि तुम भी कोई रंग ही हो। इस समय खुले आंगन में कुर्सी पर अधलेटा हूँ। सामने छपरे पर पसरी अमृता के दिल जैसे पत्ते अंधेरे में कहीं-कहीं चमक रहे हैं। पत्तों के ऊपर बादलों के असंख्य फाहे हैं। आकाश से हल्की बूंदें गिर रही है। कौन कह सकता था कि उमस की घुटन से भरा क़स्बा अचानक किसी ऊंचे पहाड़ी गांव सा हो जाएगा। बादलों के फाहों के बीच लोग चल रहे होंगे। लिबास नमी से भर जाएंगे। ठीक इसी तरह हम चुप रहते हैं। उसे कुछ कहते नहीं। उसका इंतजार करते हैं। बेख़याली में समझते हैं कि कुछ है नहीं। जाने दो। कहाँ रेगिस्तान और कहां वे पानी भरे बादल। एक रोज़ अचानक हम उनकी बाहों में पड़े होते हैं। न पड़े हों तो भी सोच सकते हैं कि ऐसा भी हो सकता है। कभी-कभी दूर बिजली चमकती है जैसे कंगन पर कोई रोशनी गिरी हो। कभी-कभी हल्की डूबी आवाज़ आती है जैसे कुछ गिर गया है। क्या? शायद, हमारे बेतरतीब पांवों से टकरा कर बिस्तर के किनारे रखी सुरम...