पीलेपन पर बची स्याही

वर्षों पश्चात पुराने पन्ने की तरह किसी आले में पड़ा होऊंगा। जैसे पुराने काग़ज़ों को इधर-उधर सहेजते हुए मुझे पिता मिल जाते हैं।

पीलेपन पर बची स्याही से वे भरे पूरे पहचाने जाते हैं। मेरा हृदय उस समय व्याकुल होता है अथवा विकल, ये समझ पाना कठिन होता है। मैं कुछ क्षण अविचल खड़ा रहता हूँ। हृदय का स्पंदन शिथिल होने लगता है।

ऐसा अनुभूत करता हूँ कि पिता का हाथ न छूटना चाहिए था। वे आगे चलते रहते और मैं आधा कदम पीछे उनका हाथ थामे चलता रहता।


जब भी मैंने उनको आगे चलते हुए पाया है, उस समय मैं एक नन्हे खरगोश की तरह पीछे कुलाचें भरता हुआ चलता रहा हूँ। ये सोचे बिना की आगे क्या संकट है, जीवन कितना बहुमूल्य है और हम इस जगत में क्या कर रहे हैं।

इतनी निश्चिंतता का मूल्य पिता के बाद समझ आता है।
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रेगिस्तान है। पवन के संग अतीत उड़कर नहीं आता। लेकिन स्मृतियाँ आती हैं। घर वही है किन्तु इसके भीतर एक विस्मृत घर रहता है। जो अचानक सामने आ खड़ा होता है।
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दुष्यंत के बचपन की तस्वीर