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पता नहीं कैसे।



पेंसिल बेख़याली में एक अक्षर लिखकर रुक गयी। मैं उस अक्षर को देखते हुए सोचने लगा कि ये क्यों लिखा है। इस अक्षर से किसी का नाम बनता है, या फिर कोई काम, कोई चाहना या फिर कोई बेहद पुराना सम्मोहन?

मैं देर तक अपनी ड्राइंग डायरी को देखता रहा। मुझे याद आया कि मैं एक औंधी लेटी हुई किताब पढ़ती लड़की के पैरों का चित्र बनाना चाहता था। लेकिन वह तस्वीर वहां नहीं थी।


जैसे उकताए हुए लोग बार-बार सर या दाढ़ी खुजाते हैं, वैसे मैं लिखने लगता हूँ। कुछ भी लिखना। बस लिखना। अभी देखे परिंदे के बारे में, हवा के साथ झरती सूखी पत्तियों के बारे में, छत्ते के पास रह रहकर उड़ती पहरेदार मधुमक्खियों के बारे में या सड़क पर पसरी धूप के बारे में या कुछ भी।

मुझे हर आधी पौनी भरी डायरी में ऐसी बेतरतीब लिखावट मिलती रहती है। मैंने उनको ऐसे ही लिखा था। जैसे सिस्मोमीटर हर आहट के साथ कुछ लिखता है, वैसे ही मेरी अंगुलियों में फंसी पेंसिल काँपती रहती है।

सूखी पत्तियां, मधुमक्खियां, सूनी सड़कें, परिंदे, कोई ठहरा हुआ दृश्य, कुछ भी देखना प्रिय है। जो ठहरा हुआ है, उसमें देखने को बहुत सा होता है। जो सजीव है वह तो अनगिनत कलाओं से भरा होता है।

मैं अपनी पीठ से कुर्सी की पुश्त को पीछे धकेलता हूँ। देखता हूँ। छत दिन में टिमटिमाती है। आंखें नीम बन्द कर लूं तो अचानक एक फाहे की तरह उड़ते हुए दिखते हो। मेरी नज़र तुम्हारा पीछा करती रहती है।
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