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Showing posts from October, 2024

उज्जैन में धाट के स्वर

पूजा स्थलों के अनेक रिच्युयल होते हैं। अक्सर जोड़े में या आगे पीछे दर्शन करने की मान्यता बड़ी है। आप कहीं जाएँ तो कोई कह देगा कि इसके बाद आपको वहाँ दर्शन करने होंगे वरना ये अधूरा रह जाएगा। मैं ऐसे कभी कहीं गया नहीं। वैसे भी मंदिरों और दरगाहों पर मेरा जाना इसलिए हुआ है कि जो साथ था, उसका गहरा मन था। उनके साथ गया। फिर जब उन्होने कहा कि अब यहाँ भी चलना है तो मैं बाहर ही रुक गया। आप जाकर आइए। मैं यहीं बैठा हूँ। थक गया हूँ। जब कोई बच्चा मिट्टी से खेल रहा होता है तब आप उसके साथ खेलने लगते हैं। आप खेलते हैं क्योंकि आप उससे प्यार करते हैं। बच्चा ईश्वर का दूत है। वह मिट्टी को परमानंद समझता है। आप अज्ञानी उसे मिट्टी समझते हैं। मैं भी ऐसे ही मंदिर दरगाह चला जाता हूँ। मुझे साथ वाले की आस्था पर भरोसा है। मैं मानता हूँ कि उसका जीवन अच्छा हो जाएगा। तुरंत कोई चमत्कार न हुआ तो भी वह भीतर से मजबूत रहेगा।   जीवन बहुत कठिन है। इसे बिताने को बहुत जुगत लगानी पड़ती है। हम फिर से ई रिक्शा पर थे। रूपेश जी के घर जा रहे थे। वहाँ हमको लंच करना था। हमारे बार-बार मना करने पर भी रेगिस्तानी की मनवार भरी मेजबानी ने हमको

क्षिप्रा के तट

भोपाल, दिल के कोने में भीगा सीला नाम है। [सात] रेल गाड़ी डेगाना स्टेशन से निकल चुकी थी। हम सब लोगों के बैड रोल खुल गए थे। कोच में अभूतपूर्व शांति थी। कोई यात्री लाउड स्पीकर पर नहीं था। हमें दिन की यात्रा की थकान थी। टिकट हमारा भोपाल का था लेकिन बाद में हमने उज्जैन उतरना तय लिया। हालांकि रात के नौ भी नहीं बजे थे। हम सब अपनी जगह पर पहुँच चुके थे। मैंने कुछ देर मोबाइल में झांक लेना चाहा लेकिन लगा कि नींद आ जाएगी। न नींद आती थी न मोबाइल में कुछ देखने को था। मैं रेल यात्रा से जुड़ी कुछ कहानियाँ याद करने लगा। मुझे देजो कोस्तोलान्यी की कहानी लुटेरा काफी प्रिय है। रेल में यात्रा कर रही किसी कमजोर स्त्री को लूट कर हत्या कर देने के लिए एक व्यक्ति रेल में सवार होता है। वह अपना शिकार चुन लेता है। अकेली कृशकाय स्त्री, जैसी कि उसे चाहना की थी। वह उसके आस पास बना रहता है। अचानक वह खाँसने लगती है। खांसी में उसकी सांस अटकने लगती है। वह अपने आप को रोक नहीं पाता। एक ग्लास पानी स्त्री को देता है। योजनानुसार हत्या के बाद उसे अपने हाथ स्प्रिट से धोने थे। वह अपनी जेब से रुमाल निकाल कर उस पर थोड़ा स्प्रिट छिड़

रेल केवल पटरी पर नहीं चलती

हम बोझ उठाए हुए किसी जगह की ओर क्यों बढ़ते हैं? हम कहीं जाते हैं तो कोई चाहना तो होती होगी। प्रेमी को प्रेमिका से मिलने की, ख़ानाबदोश को नया ठिकाना तलाश लेने की, चित्रकार को किसी की आँखों में रंग भर देने की, व्यापारी को सौदा पट जाने की, शिकारी को शिकार मिल जाने की माने जो कोई कुछ चाहता है, वह यात्रा करता है। मैं किसलिए छुट्टी लेकर, अपना रुपया खर्च करके, मित्रों को सहेजते हुए भोपाल की ओर जा रहा हूँ? रेलवे स्टेशन पर बने पारपथ से उतरते हुए यही सोच रहा था। किसी ने तुम्हारी किताब छाप दी तो क्या ये कोई उपकार की बात है? कोई तुमसे तुम्हारे सामने हंस कर बोल लिया तो क्या कोई अहसान है? खोजो वह तंतु क्या है? जो असल में तुमको उसके करीब होने को उकसाता है।  यही सोचते हुए मैं सीढ़ियाँ उतर रहा था। मेरे कंधे पर एक थैला था। मेरे हाथ में एक पानी की बोतल थी, जो आधी खाली थी। मेरे आस-पास बोरिया भरे हुए कुछ लोग थे, जो कहीं पहुँच जाना चाहते थे। मेरे साथ एक छोटा लड़का था, जो सिनेमेटोग्राफर बनाना चाहता है। मेरे ठीक पीछे एक अधेड़ आदमी था, जो अपनी तनख्वाह से दो बच्चों को पालना संवारना चाहता था। जो अपनी संगिनी को सदा ख

मन का तड़ित चालक

एक लाइटनिंग कंडक्टर होना चाहिए था। पुराने समय के विद्यार्थियों की चोटी की तरह सर पर लगा होता। सारे सफ़र, सब दृश्य, सब प्रेमिल संग किसी आवेश की तरह दिमाग में जमे नहीं रहते। वे विद्युत प्रवाह की तरह दिमाग से दिल से होते हुए पाँवों के रास्ते धरती में समा जाते। हम कोरे खाली हो जाते। आगे बढ़ जाते। सब कुछ यथावत हो जाता। एक बहती हुई नदी पीछे छूट जाती। एक ठहरी हुई निगाह आगे बढ़ जाती। सब छुअन हवा के संग कहीं खो जाती। मद भरे प्यालों की स्मृति अलोप हो जाती। रात की नीरवता में चुप खड़े रास्तों और हवा की शीतलता के अहसास भूल के किसी खाने में जा गिरते। सफ़ेद टी पर दिखती शहरी धुएँ की हल्की परतें, जींस पर उगी सलवटें, हाथों से आती लोहे की गंध को धोकर साफ कर लिया। कोई खुशबू उनमें नहीं बची मगर दिल उन्हीं सब को महसूस करता रहा। सफ़र के हिचकोले, घर में थमे भी नहीं थे कि ग्रहों की चाल ने कहा। अपनी कार बाहर निकालो और चल पड़ो। सफ़र फिर शुरू हो गया। कहीं गहरी नींद का कोई झौंका जबरन आया। जाग में भी उनींदापन हावी हो गया। कार आहिस्ता कर विंडो ग्लास नीचे करके तपती सड़क से उठते भभके से आँखें सेक ली। आँखें देखने लायक हुई तो उनम

जोधपुर, प्रेम और शिकवों का शहर

दिल तो नहीं होता मगर कभी-कभी मैं एक बार मुड़कर देख लेता हूँ। शायद उसे अच्छा लगेगा। जब मैं खुद के लिए मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि कुछ फ़ौरी शिकायतें थी। वे उसी समय कर ली। लड़ लिए और फिर आगे उनको सदा के लिए भुला दिया। कहा “जाओ खुश रहो। हमने जो प्यार किया है वह काफी है” ठीक ऐसे ही अपने शहर से हर बार निकलता हूँ। बाड़मेर शहर के आखिरी पुलिये के नीचे रुके हुए, हम छगन का इंतज़ार करते हैं। रूपेश सोलंकी अपनी कार में ही बैठे थे। मैंने कहा “बाहर आ जाइए। छगन से पुराना परिचय है। जब उसे कहेंगे तभी वह घर से निकलेगा। उसे आने में समय लगेगा।“ ओवर ब्रिज के ऊपर से गुज़रती गाडियाँ जैसलमेर के रास्ते जा रही होंगी। निजी ट्रेवल्स के दफ़्तर की बेंच पर ड्राईवर सो रहे होंगे। सामने अँग्रेजी शराब की दुकान के पीछे अंधेरे में सीलापन ठहरा होगा। कोई मैकश बीयर सूंत रहा होगा। मैं पुल के नीचे खड़ा हुआ कयास लगा रहा था। सामने एक बस खड़ी थी। सीमा के पास वाले आखिरी गांवों तक जाएगी। वे गाँव रेत के बीहड़ में बसे हुए हैं। वहाँ जीना बहुत हुनर मांगता है। “लीजिये छगन कुमावत आ गए हैं” इतना कहते हुए रूपेश जी ने सामान रखने की व

पानी की महक

भोपाल, दिल के कोने में भीगा सीला नाम है। [दो] यायावरों और प्रेमियों की ज़ुबान पर ना शब्द कम ही मिलता है। यायावर अजाने के प्रति आकर्षित रहते हैं, प्रेमी जो होगा देख लेंगे के भाव में बने रहते हैं। भोपाल शहर का नाम सुनकर रूपेश सोलंकी ने कहा “जो हुकुम। चलेंगे सर”  एक प्रेमी दीवाने के मुंह से हाँ सुनकर मैं आगत की यात्रा के प्रति थोड़ा सहज हुआ। इसी सहजता से मुस्कान आई। मुझे मुसकुराता देखकर रूपेश जी ने कहा “सर उज्जैन तो मेरा घर है। जब हम पाकिस्तान से शरणार्थी की तरह आए थे, सबसे पहले उज्जैन जाकर ही बसे। हमारा पूरा परिवार उज्जैन का वासी हो गया। पिताजी कुछ समय रहे फिर उनको रेत के धोरों की याद सताने लगी। वे एक क़स्बे को छोडकर बाड़मेर के रेतीले संसार में लौट आए।“ आंधियों से भरे दिल में कहीं पानी की महक जागी। तपती लू के स्थान पर पानी को छूकर आती हुई हवा का खयाल आया।  मैंने कहा “कल संजय सर आते हैं। उनसे बात करके आपको बताता हूँ।” मैं उल्फ़त की दुकान तक लौट आया। पान के शौकीन लोग अपना बीड़ा बँधवाने में लगे थे। मास्टर नेमसा बाड़मेर के दर्जी समाज के अध्यक्ष हो चुके हैं। इस कारण वे समय पर कपड़े सिल कर देने लगे है