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क्षिप्रा के तट

भोपाल, दिल के कोने में भीगा सीला नाम है। [सात]

रेल गाड़ी डेगाना स्टेशन से निकल चुकी थी। हम सब लोगों के बैड रोल खुल गए थे। कोच में अभूतपूर्व शांति थी। कोई यात्री लाउड स्पीकर पर नहीं था। हमें दिन की यात्रा की थकान थी। टिकट हमारा भोपाल का था लेकिन बाद में हमने उज्जैन उतरना तय लिया।

हालांकि रात के नौ भी नहीं बजे थे। हम सब अपनी जगह पर पहुँच चुके थे। मैंने कुछ देर मोबाइल में झांक लेना चाहा लेकिन लगा कि नींद आ जाएगी। न नींद आती थी न मोबाइल में कुछ देखने को था। मैं रेल यात्रा से जुड़ी कुछ कहानियाँ याद करने लगा। मुझे देजो कोस्तोलान्यी की कहानी लुटेरा काफी प्रिय है।

रेल में यात्रा कर रही किसी कमजोर स्त्री को लूट कर हत्या कर देने के लिए एक व्यक्ति रेल में सवार होता है। वह अपना शिकार चुन लेता है। अकेली कृशकाय स्त्री, जैसी कि उसे चाहना की थी। वह उसके आस पास बना रहता है। अचानक वह खाँसने लगती है। खांसी में उसकी सांस अटकने लगती है। वह अपने आप को रोक नहीं पाता। एक ग्लास पानी स्त्री को देता है। योजनानुसार हत्या के बाद उसे अपने हाथ स्प्रिट से धोने थे। वह अपनी जेब से रुमाल निकाल कर उस पर थोड़ा स्प्रिट छिड़क देता है। स्त्री की ओर रुमाल बढ़ाते हुए कहता है, इसे सूंघते रहिए आपको आराम आएगा। एक हत्यारा अचानक देवदूत की तरह व्यवहार करने लगता है।

हमारा मन कब बदल जाए, किसका कब बदल जाए कहा नहीं जा सकता।

जब मेरी आँख खुली कहानी कहीं पीछे छूट चुकी थी। मैं कोच के दरवाज़े पर खड़ा होकर स्टेशन का नाम पढ़ रहा था। नागदा जंक्शन। राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर भवानी मंडी स्टेशन है। यात्रियों के लिए टिकट खिड़की मध्य प्रदेश में हैं, रेल में सवार राजस्थान से होते हैं। ये लोगों को काफी रोचक जान पड़ता है।

मैंने अचानक पाया कि पीठ के पीछे रूपेश जी खड़े हैं।

“सर बस अब आया उज्जैन।“

मैं कहता हूँ कि डॉक्टर साहब जाग जाएंगे लेकिन हमारा बालक दूसरे कोच मैं है। उसे उठाकर ले आते हैं। सुबह के साढ़े चार बजे हम छगन को जगा लाये। आधे घंटे बाद उज्जैन स्टेशन आ गया। रेल कोच को छोड़ देने का क्या सुख था, कहा नहीं जा सकता। रेलवे स्टेशन के बाहर ठीक सामने पान की दुकान, साथ में चाय की थड़ी और उसके ऊपर कुछ रुकने की व्यवस्था थी।

हमको चाय पीनी थी। कुछ धुआँ करना था। ये आयोजन आरंभ हुआ तभी रूपेश जी ने फ़ोन पर कहा “जय माताजी री सा। हुकम पधारो, गेट रे सामे ईज़ ऊभा”

इस बातचीत ने मेरा ध्यान खींचा। मैंने पूछा “कौन हैं” 

रूपेश जी कहते हैं “अशोक दान जी देथा”

मैं मुस्कुराने लगा। मैंने कहा कुछ रोज़ पहले आकाशवाणी के गेट पर मुझसे हिन्द युग्म उत्सव का हाल पूछ रहे थे। लेकिन बस इतना कहा कि मेरा मन है। ये यायावर शोधार्थी पहले कबीर यात्रा फिर दरगाहों के चक्कर काटता हुआ कोटा का मेला देखकर और जाने कहाँ से उज्जैन आ पहुंचा था।

उज्जैन रेलवे स्टेशन से आता हुआ यायावर दिख भी गया। कंधे पर एक सफ़ेद कंबल डाले हुए। कुर्ता और जींस पहने अपनी रेगिस्तानी चाल में हमारी ओर चला आ रहा था। रूपेश जी कहते हैं “अशोक सा ने साथे ले हालां” मैंने कहा “अब कहीं जाने भी नहीं देना चाहिए। आदमी प्यारा है और परदेस में पकड़ आया है।“

“जी हुकुम, आदमी साफ दिल का है।”  रूपेश जी ने ऐसा कहते हुए कुछ देर से रोक रखे ई रिक्शा वाले को कहा “भिया चलेंगे” उन्होने बताया कि उज्जैन में दादा लोगों के नाम के आगे भिया लगना अनिवार्य है। कुछ एक पुराने भिया लोगों के किस्से भी सुनाए। लेकिन रूपेश जी ने इन किस्सों के बाद हमको आश्वस्त किया कि अब कानून का राज चलता है। भिया लोगों की काफी कंबल कुटाई हो चुकी है। उनके चाकू अब जंग खा रहे हैं।

इन्हीं बातों में ई रिक्शा ने पहले थोड़ा ज़ोर लगाया और अपनी शक्ति खत्म होने से ठीक पहले ही ढलान में गति पकड़ ली। हम चार रेगिस्तानी और एक वैश्विक व्यक्ति रूपेश सोलंकी सम्मानजनक गति से सैन समाज की बसावट की ओर बढ़ रहे थे। सिंधी कॉलोनी में ही सैन समाज के तीस एक घर हैं।

कॉलोनी साफ थी। रास्तों पर कचरा नहीं था। लेकिन घरों के बाहर अनुपयोगी हो चुकी स्कूटी और मोटर साइकिल धूल से सनी खड़ी थी। एक के आगे तो बाकायदा चारपाई भी थी। एक सुंदर से घर के आगे रूपेश जी ने आवाज़ दी। “पप्पी”

तहमद बांधे और सेंडो बनियान पहने एक अधेड़ बाहर आए। मेरी ही उम्र के रहे होंगे किन्तु प्रोढ्ता कुछ अधिक झलक रही थी। ये रूपेश जी के बड़े भाई थे। रूपेश जी ने पप्पी नाम का उच्चारण कई बार किया। मैंने कई बार खुद को भरोसा दिलाया कि पप्पी एक भरे पूरे घर के मुखिया हैं। लेकिन बचपन का नाम अब भी प्रचलित है।

घर में घुसते ही तोते ने कहा “आओ” मुझे तो यही सुनाई दिया। कुछ तोते तो गालीबाज़ भी होते हैं। लेकिन ये सज्जन थे। आओ कहकर पुनः आँखें बंद करके प्रातःकालीन ध्यान में मग्न हो गए। उन्होने अपना मुंह घर के अंदर की ओर कर लिया। शायद वे पूर्व परिचित थे कि अब रूपेश बा सिगरेटों का धुआँ करेंगे, जो कि स्वास्थ्य के लिए अनुकूल न होगा।

आधुनिक घर में बाहर का कमरा गुडाल था। उसी में संलग्न वाशरूम था। हमने राहत की सांस ली। गुडाल पाँच सितारा थी। गरम पानी था। वेस्टर्न और इंडियन कमोड एक साथ लगे थे। ये परम संतोष का विषय रहा। 

उनका नाम शायद ओम प्रकाश जी था। उन्होने कहा “पोहा लगेगा। चाय लगेगी” इसका अभिप्राय हुआ कि पोहा खाएँगे चाय पिएंगे।

हम तर ओ ताज़ा हो गए। चाय की चुसकियाँ ली। अपना सामान छोड़ा और महा कालेश्वर के दर्शन के लिए चल पड़े। सुबह के आठ बज चुके थे। लेकिन महाकाल तक हमको साढ़े दस बजे पहुँचना था। इसलिए रूपेश जी ने वहाँ पहुँचने से पहले हमको तीन अद्भुत स्थानों की सैर करवाई।

एक मंगलनाथ मंदिर था। जहां मंगल दोष का निवारण थोक के भाव में चल रहा था। कतार में बाजोट सजे थे। पूजा हो रही थी। इसके बाद हम एक सुंदर स्थान पर पहुंचे। ये कालियादेह पैलेस था। पैलेस शब्द जुड़ा होने से ही समझ आ गया कि कभी राजा महाराजों का प्रिय स्थान रहा होगा।

क्षिप्रा के तट पर बना ये भवन बहुत सुंदर था। इसमें सूर्य मंदिर था। उसके सामने क्षिप्रा अपनी रवानी पर थी। हमने वहीं फ़ोटो सेशन किया। नदी में पाँव डालकर बैठे। फतेह सर ने एक शिला पर पद्मासन लगाया और अपना विडियो शूट करवाया। इतने बड़े और व्यस्त व्यक्ति का किसी सरल मन यात्री में ढल जाना सुखद था। साथ ही उनको बिना किसी संकोच के हमारे माननीय जैसी अवसर अनुकूल मुद्रा बना कर बैठे देखना अद्भुत था।

ये प्रेम करने वालों का स्थान भी था। इसलिए हम सब भाटी सर के प्रेम में पड़ गए। मैंने, छगन ने और अशोक ने उनकी खूब तस्वीरें उतारी। हमारी फोटोग्राफी के चक्कर में उनकी पेंट पर लगी सफेदी झाड़ने का काम भी किया। उनसे कहा कि यहाँ हमारा कोई महबूब नहीं है। आप इकलौते हैं, इसलिए कृपया हमारा प्यार बरदाश्त करें।

उज्जैन भ्रमण और दर्शन का बहुप्रतीक्षित क्षण आने को था। केडी पैलेस से विदा लेते हुए, हम ई रिक्शा के पास आ गए थे। सुबह हमने जो ई रिक्शा किया था, वह आधे रास्ते के बाद आगे चलने से मुकर गया था। उसे लगा कि लोकल आदमी ने भाड़ा तय करवाया है लेकिन इनसे अधिक वसूल किया जा सकता है।

रूपेश जी ने एक ई रिक्शा किया। कोई पचास पार के आदमी चला रहे थे। उनके पास एक पाँच छह बरस या इससे कम उम्र की बच्ची बैठी थी। वह ई रिक्शा की अभ्यस्त लग रही थी। उसे देखकर समझा जा सकता कि वह अवैतनिक को पायलट है।

रूपेश जी के भतीज साहब ने हमको जिस स्थान तक आने को कहा था, वहाँ हमने ई रिक्शा छोड़ दिया। तय किया गया भाड़ा रूपेश जी डॉक्टर साहब ने चुका दिया था। मेरा इस बात पर ध्यान नहीं गया। जब भाड़ा दे दिया गया और ई रिक्शा वाले जाने को थे। मैंने उनको रोका। मेरी जेब में कोई ढाई तीन सौ रुपए रहे होंगे। मैंने असल में गिने नहीं। वे उस बच्ची के हाथ में रख दिये। उनींदी बच्ची की मुट्ठी समेटते हुये मैं केवल इतना कह पाया कि देने वाला दे न दे, तुम अपने पाँवों पर खड़ी होना।

अचानक रिक्शा वाले सज्जन बोले। अनाथ बच्ची है। कोई देखने वाला नहीं है। इसलिए ऑटो में साथ लेकर चलता हूँ। आगे जो प्रभु की कृपया होगी। आपको बहुत धन्यवाद है। हम सब अवाक रह गए। कि बहुत लोग मांगने या सहानुभूति के लिए बच्चों का शोषण करते हैं। लेकिन पूरी यात्रा के दौरान बच्ची के साथ होने के बारे में कोई ज़िक्र नहीं किया। हम जितनी देर जहां रुके वे खुश ही रहे। कहीं जाने की कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई।

मैंने बच्ची के सर पर हाथ फेरा।

सामने महा कालेश्वर में प्रवेश के लिए द्वार था। ललाट और गाल रंगने के लिए बहुत सारे लोग थे। रंगवाए हुये भी बहुत सारे थे। कुछ लोगों ने महाकाल लिखे कुर्ते खरीद कर पहन रखे थे। अधिकतर किसी हड़बड़ी में थे। भतीज साहब प्रबंधन तक पहुँच बनाते हुए, हमको अति विशिष्ट व्यक्तियों की तरह गर्भगृह तक ले आए थे।

मैं लोगों के चेहरे देख रहा था। अधिकतर चेहरों पर प्रसन्नता का अतिरेक हिलोरें ले रहा था। शेष दंडवत थे। एक हल्की धक्कम पेल थी। लेकिन वे धक्के भक्तों को महसूस नहीं हो रहे थे। सब किसी अन्य तन्तु से जुड़े हुए दिख रहे थे। सेवक या व्यवस्था बनाने वाले भी अतिरिक्त बल में नहीं थे, वे भक्तों के भाव से परिचित थे। उन्हें आगे बढ़ जाने का आग्रह अवश्य करते किन्तु कोई ज़बरदस्ती नहीं थी।

हमारा दल भाव विभोर था। मैं उन सबको देख रहा था। जाने वे शिव से कुछ चाहते थे या नहीं मगर सुख उनके चेहरे पर था।

बाहर आकर मैं जूतों के तस्मे बांध रहा था। वे बंध जाने को ही बने थे। कुछ बंधन ही होते हैं। उनका काम ही यही है। उनको अकसर बदलना नहीं पड़ता। मैंने जूतों के लिए कभी नए तस्मे नहीं खरीदे। जैसे संबंध जैसा आया था वैसा ही रहा। वह जितने साथ के लिए था, उतना ही स्वीकार किया। उसे और अधिक चलाने की कोशिश नहीं की, उसमें कुछ भी बदलने की कोशिश भी नहीं की।

मैंने कहा धन्यवाद।

इस दर्शन के पश्चात अचानक हिन्द युग्म की याद ने घेर लिया। चौतरफा आक्रमण हुआ। अब तक हम घूमते फिरते मुसाफिर थे। तस्वीरें लेते चल रहे थे। अचानक बहुत सारे लेखकों की याद आने लगी। शैलेश भारतवासी से तुरंत मिल लेना का मन हुआ। कुछ पार्टीबाज़ दोस्तों की मन ही मन गिनती होने लगी। किसके साथ बैठेंगे। कितना उनको सुन लेंगे। कितना जाग लेंगे।

उज्जैन में रुकना कठिन हुआ जा रहा था लेकिन अभी एक दोपहर का भोज बाकी था। अपना सामान उठाना था और उत्सव के लिए निकाल जाना था।

क्रमशः 

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